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जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ ६-सर्व उपाधियों के परित्याग करने को उत्सर्ग तप कहते है। इस प्रकार से यह बारह प्रकार का तप है, इस तप का जिस धर्म में उपदेश किया गया हो वही धर्म मानने के योग्य समझना चाहिये तथा उक्त बारह तपों का जिस ने ग्रहण और धारण किया हो उसी को तपसी समझना चाहिये तथा उसी के वचन पर श्रद्धा रखनी चाहिये किन्तु जो पुरुष उपवास का तो नाम करे और दूध, मिठाई, मावा (खोया), घी, कन्द, फल और पकान आदि सुन्दर २ पदार्थों का घमसान करे (भोजन करे) अथवा दिनभर भूखा रहकर रात्रि में उत्तमोत्तम पदार्थों का भोजन करे—उस को तपखी नहीं समझना चाहिये क्योंकि--देखो ! बुद्धिमानों के सोचने की यह बात है कि सूर्य इस जगत् का नेत्ररूप है क्योंकि सब ही उसी के प्रकाश से सब पदार्थों को देखते है और इसी महत्त्व को विचार कर लोग उस को नारायण तथा ईश्वरखरूप मानते हैं, फिर उसी के अस्त होने पर भोजन करना और उस को व्रत अर्थात् तप मानना कदापि योग्य नहीं है, इसी प्रकार से तप के अन्य भेदों में भी वर्चमान में अनेक त्रुटियां पड़ रही हैं, जिन का निदर्शन फिर कभी समयानुसार किया जावेगा—यहां पर तो केवल यही समझ लेना चाहिये कि ये जो तप के बारह भेद कहे हैं-इन का जिस धर्म में पूर्णतया वर्णन हो और जिस धर्म में ये तप यथाविधि सेवन किये जाते हों-वही श्रेष्ठ धर्म है, यह धर्म की तीसरी परीक्षा कही गई। __ धर्म की चौथी परीक्षा दया के द्वारा की जाती है-एकेन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों को अपने समान जानना तथा उन को किसी भी प्रकार का क्लेश न पहुंचाना, इसी का नाम दया है और यही पूर्णरूप से (बीसे विश्वा) दया कहलाती है परन्तु इस पूर्णरूप दया का वर्ताव मनुष्यमात्र से होना अति कठिन है-किन्तु इस ( पूर्णरूप) दयाका पालन तो संसार के त्यागी, ज्ञानवान् मुनिजन ही कर सकते है, हां केवल शुद्ध गृहस्थ पुरुष सवा विश्वामात्र दया का पालन कर सकता है, इस लिये समझदार गृहस्थ
• द्रव्य तथा कुटुम्ब आदि इष्ट (प्रिय पदार्थों के वियोग के न होने की चिन्ता करना, तीसरा-गोगनिदानात ध्यान अर्थात् रोग के कारण से उरना और उस को पास मे न माने देने की चिन्ता करना, चौथा--अग्रशोचनामार्तध्यान-अर्थात् आगामि समय के लिये सुख और द्रव्य आदि की प्राप्ति के लिये अनेक प्रकार के मनोरयो की चिन्ता करना । एवं रौदध्यान के भी चार भेद हैं-प्रथम-हिंसानन्द रौद्रध्यान-अर्थात् अनेक प्रकार की जीवहिंसा कर के (परापकार वा गृहरचना आदि के द्वारा) मन में मानन्द मानना, दूसरामृषानन्दरौद्रध्यान-अर्थात् मिथ्या के द्वारा लोगों को धोखा देकर मन में आनंद मानना, तीसरा-चौर्यानन्द रौद्रध्यान- अर्थात् अनेक प्रकार की चोरी (परद्रव्य का अपहरण मादि) करके आनद मानना, चौथा-संरक्षणानन्दरौद्रध्यान-अर्थात् अधर्मादि का भय न करके द्रव्यादि का संग्रह कर तथा उस की रक्षा कर मन में आनन्द मानना, इन का विशेष वर्णन जैनतत्त्वादर्श आदि प्रन्थों में देखना चाहिये।
१-बीस विश्वा दया का वर्णन ओसवाल घशावलि में आगे किया जायगा ।