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द्वितीय अध्याय |
पर को वसन अन्न पुनि, सेज परस्त्री नेह ॥
दूरि तजहु एते सकल, पुनि निवास परगेह ॥ ७९ ॥
पराया वस्त्र, पराया अन्न, पराई शय्या, पराई स्त्री और पराये मकान में रहना, इन पांचों बातों को दूर से ही छोड़ देना चाहिये ॥ ७९ ॥
जग जन्में फल धर्म अरु, अर्थ काम पुनि मुक्ति ॥
जासें सघत न एक हू, दुःख हेत तिहिँ भुक्ति ॥ ८० ॥
संसार में मनुष्यजन्म का फल यही है कि-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करे, किन्तु इन चारों में से जिस ने एक भी प्राप्त नहीं किया उस का सब भोग केवल दुःख के लिये है ॥ ८० ॥
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परनिन्दा विन दुष्ट नर, कबहुँ नहिँ सुख पाय ॥
त्याग का जिमि सर्व रस, विष्ठा चित्त सुहाय ॥ ८१ ॥
दुर्जन मनुष्य पराई निन्दा किये बिना कभी सुखी नहीं होता है ( अर्थात् पराई निन्दा करने से ही सुखी होता है), जैसे कौआ अनेक प्रकार का उत्तम भोजन छोड़ कर विष्ठा खाये विना नहीं रहता है ॥ ८१ ॥
स्तुति विद्या की लोक में, नहिँ शरीर की चाहिँ ॥
काली कोयल मधुर धुनि, सुनि सुनि सकल सराहिं ॥ ८२ ॥
लोक में विद्या से प्रशंसा होती है किन्तु शरीर की प्रशंसा नहीं होती है, देखो । कोयल यद्यपि काली होती है - तथापि उस के मीठे खर को सुन कर सब ही उस की प्रशंसा करते है ॥ ८२ ॥
सवैया- पितु धीरज औ जननी जु क्षमा, मननिग्रह भ्रात सहोदर है ।
सुत सत्य दया भगिनी गृहिणी, शुभ शान्ति हु सेवमें तत्पर है। सुखसेज सजी धरणी दिशि अम्बर, ज्ञानसुधा शुभ आहर है । जिन योगिन के जु कुटुम्बि यहैं, कहु मीत तिन्हें किन्ह को डर है ॥ ८३ जिन का धीरज पिता है, क्षमा माता है, मन का संयम आता है, सत्य पुत्र है, दया बहिन है, सुन्दर शान्ति ही सेवा करनेवाली भार्या (स्त्री) है, पृथिवी सुन्दर सेज है, दिशा व है तथा ज्ञानरूपी अमृत के समान भोजन है, हे मित्र ! जिन योगी जनों के उक्त कुटुम्बी है बतलाओ उन को किस का डर हो सकता है ॥ ८३ ॥
बादल छाया तृण अगनि, अधम सेव थल नीर ॥ वेश्यानेह कुमित्र ये, बुदबुद ज्यों नहिँ थीर ॥ ८४ ॥
१ --- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का स्वरूप सुभाषितावलि के २२३ से २२८ वें तक दोहों में देखो ||
२ -- यह सवैया "धैर्ये यस्य पिता क्षमा व जननी" इत्यादि भर्तृहरिशतक के श्लोक का अनुवादरूप है ॥