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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ बादल की छाया, तिनको (फूस) की अमि, नीच स्वामी की सेवा, रेतीली पृथिवी पर वृष्टि, वेश्या की प्रीति और दुष्ट मित्र, ये छओं पदार्थ पानी के बुलबुले के समान हैं - र्थात् क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं, इस लिये ये कुछ भी लाभदायक नहीं हैं ॥ ८४ ॥ नगर शरीर रु जीव नृप, मन मन्त्रीन्द्रिय लोक ॥ मन बिनशे कछु वश नहीं, कौरव करण विलोक ॥ ८५॥ इस शरीररूपी नगरी में जीव राजा के समान है, मन मन्त्री अर्थात् प्रधान के समान - है, और इन्द्रियां प्रजा के समान हैं, इस लिये जब मनरूपी मत्री नष्ट हो जाता है अर्थात् जीत लिया जाता है तो फिर किसी का भी वश नहीं चलता है, जैसे कर्ण राजा के मर जाने से कौरवों का पाण्डवों के सामने कुछ भी वश नहीं चला ।। ८५ ॥ धर्म अर्थ अरु काम ये, साधहु शक्ति प्रमाण ॥ नित उठि निज हित चिन्तहू, ब्राह्म मुहरत जाण ॥८६॥ मनुष्य को चाहिये कि- अपनी शक्ति के अनुसार धर्म, अर्थ और काम का साधन करे तथा प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त में उठकर अपने हित का विचार करना चाहिये, तात्पर्य यह है कि-पिछली चार घड़ी रात्रि रहने पर मनुष्य को उठना चाहिये, फिर अपने को क्या करना अछा है और क्या करना बुरा है-ऐसा विचारना चाहिये, प्रथम धर्म का आचरण करना चाहिये, अर्थात् समता का परिणाम रख कर ईश्वर की भक्ति और किये हुए पापों का आलोचन दो पड़ी तक करके भावपूजा करे, फिर देव और गुरु का वन्दन तथा पूजन करे, पीछे व्याख्यान अर्थात् गुरुमुख से धर्मकथा सुने, इस के पीछे सुपात्रों को अपनी शक्ति के अनुसार दान देकर पथ्य भोजन करे, फिर अर्थ का उपार्जन करे अर्थात् व्यापार आदि के द्वारा धन को पैदा करे परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि-वह धन का पैदा करना न्याय के अनुकूल होना चाहिये किन्तु अन्याय से नहीं होना चाहिये, फिर काम का व्यवहार करे अर्थात् कुटुम्ब, मकान, लड़का, माता, पिता और स्त्री आदि से यथोचित वर्ताव करे, इस के पश्चात् मोक्ष का आचरण करे अर्थात् इन्द्रियों को वश में करके वैराग्ययुक्त भाव के सहित जो साधु धर्म (दुःख के मोचन का श्रेष्ठ उपाय) है उस को अंगीकार करे ।। ८६ ॥ कौन काल को मित्र है, देश खरच क्या आय ॥ को मैं मेरी शक्ति क्या, नित उठि नर चित ध्याय ॥ ८७॥ यह कौन सा काल है, कौन मेरा मित्र है, कौन सा देश है, मेरे आमदनी कितनी है और खर्च कितना है, मैं कौन जाति का हूँ औक्या मेरी शक्ति है, इन बातों को मनुष्य को -इस इतिहास को पांडवचरित्रादि प्रन्थों में देखो ॥ २ क्योंकि अन्याय से पैदा किया हुमा धन दश वर्ष के पश्चात् मूलसहित नष्ट हो जाता है, यह पहिले ३२ वे दोहे में कहा जा चुका है।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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