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द्वितीय अध्याय ||
कुलहीन हु धनवन्त जो, धनसें वह सुकुलीन ॥
शशि समान हू उच्च कुल, निरधन सब से हीन ॥ ४५ ॥
नीच जातिवाला पुरुष भी यदि धनवान् हो तो धन के कारण वह कुलीन कहलाता है। और चन्द्रमा के समान निर्मल कुल अर्थात् ऊंचे कुलवाला भी पुरुष धन से रहित होने से सब से हीन गिना जाता है ॥ ४५ ॥
वय करि तप कर वृद्ध है, शास्त्रवृद्ध सुविचार ॥
वे सब ही धनवृद्ध के, किङ्कर ज्यों लखि द्वार ॥ ४६ ॥
इस संसार में कोई अवस्था में बड़े हैं, कोई तप में बड़े है और कोई बहुश्रुति अर्थात् अनेक शास्त्रों के ज्ञान से बड़े हैं, परन्तु इस रुपये की महिमा को देखो कि वे तीनों ही धनवान् के द्वार पर नौकर के समान खड़े रहते है ॥ ४६ ॥
३५.
वन में सुख से हरिण जिमि, तृण भोजन भल जान || देहु हमैं यह दीन वच, भाषण नहि मन आन ॥ ४७ ॥ जंगल में जाकर हिरण के समान सुखपूर्वक घास खाना अच्छा है परंतु दीनता के साथ किसी स्म (कञ्जूस) से यह कहना कि "हम को देओ" अच्छा नहीं है ॥ ४७ ॥ कोई विद्यापात्र हैं, कोई धन के धाम ॥
कोई दोनों रहित हैं, कोइ उभयविश्राम ॥ ४८ ॥
देखो ! इस संसार में कोई तो विद्या के पात्र हैं, कोई धन के और धन दोनों के पात्र हैं और कोई मनुष्य ऐसे भी हैं जो न पात्र हैं ॥ ४८ ॥
१ - इस बात को वर्तमान में पाठकगण आखों से देख ही रहे होंगे ॥ विधाता का छठी का लेख कहते है, क्योंकि देव और विधाता ये दोनो
पात्र हैं, कोई विद्या
विद्या और न धन के
पांच होत ये गर्भ में, सब के विद्या वित्त ॥
आयु कर्म अरु मरण विधि, निश्चय जानो मिन्त ॥ ४९ ॥
हे मित्र ! इस बात को निश्चय कर जान लो कि — पूर्वकृत कर्म के योग से जीवधारी के लिये - विद्या, धन, आयु, कर्म और मरण, ये पांच बातें गर्भ ही में रच दी जाती हैं ॥ ४९ ॥ चित्रगुप्त की भाल में, लिखी जु अक्षर माल ॥
बहु श्रम से हू हि मिटै, पण्डित बरु भूपाल ॥ ५० ॥
जो कर्म के अक्षर ललाट में लिखे है उसी को चित्रगुप्त कहते हैं ( अर्थात् छिपा हुआ लेख ) और इसी को लौकिक शास्त्रवाले विधाता के लिखे हुए अक्षर भी कहते हैं, तथा जैनधर्मवाले पूर्वकृत कर्म के स्वाभाविक नियम के अनुसार अक्षर मानते हैं, तात्पर्य इस का यही है कि जो पूर्वकृत कर्म की छाप मनुष्य के ललाट पर लगी हुई है उस को
२-इन्हीं बातो को लोक में
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