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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४७१ अर्थात् तज, तमालपत्र, चिकित्सा - १ - विषं से तथा ओषधि के गन्ध से उत्पन्न हुए ज्वर में - पित्तशमन, कर्ता ( पित्त को शान्त करनेवाला) औषध लेना चाहिये, इलायची, नागकेशर, कबावचीनी, अगर, केशर और लौंग, सुगन्धित पदार्थ लेकर तथा उनका काथ ( काढा ) बना कर पीना चाहिये । इन में से सब वा थोड़े २ - काम से उत्पन्न हुए ज्वर में-वाला, कमल, चन्दन, नेत्रवाला, तज, धनियाँ तथा जटामांसी आदि शीतल पदार्थों की उकाली, ठंढा लेप तथा इच्छित वस्तु की प्राप्ति आदि उपाय करने चाहियें । ३-कोष, भय और शोक आदि मानसिक ( मनःसम्बन्धी ) विकारों से उत्पन्न हुए ज्वरों में उन के कारणों को ( क्रोध, भय और शोक आदिको ) दूर करने चाहियें, रोगी को धैर्य ( दिलासा) देना चाहिये, इच्छित वस्तु की प्राप्ति करानी चाहिये, यह ज्वर पित्त को शान्त करनेवाले शीतल उपचार, आहार और विहार आदि से मिट जाता है । ४ - चोट, श्रम, भार्गजन्य श्रान्ति ( रास्ते में चलने से उत्पन्न हुई थकावट ) और गिर जाना इत्यादि कारणों से उत्पन्न हुए ज्वरों में- पहिले दूध और भात खाने को देना चाहिये तथा मार्गजन्य श्रान्ति से उत्पन्न हुए ज्वर में तेल की मालिश करवानी चाहिये तथा सुखपूर्वक ( आराम के साथ ) नीद लेनी चाहिये । ५-आगन्तुक ज्वरवाले को लंघन नहीं करना चाहिये किन्तु स्निग्ध ( चिकना ), तर तथा पित्तशामक ( पित्त को शान्त करनेवाला ) शीतल भोजन करना चाहिये और मन को शान्त रखना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से ज्वर नरम (मन्द) पड़ कर उतर जाता है । ६ - आगन्तुकज्वर वाले को वारंवार सन्तोष देना तथा उस के प्रिय पदार्थों की प्राप्ति कराना अति लाभदायक होता है, इस लिये इस बात का अवश्य खयाल रखना चाहिये ॥ विषमज्वर का वर्णन ॥ कारण - किसी समय में आये हुए ज्वर के दोषों का शास्त्र की रीति के बिना किसी प्रकार निवारण करने के पीछे, अथवा किसी ओषüि से ज्वर को दबा देने से जब उस १- इन दोनों (विषजन्य तथा ओषभिन्धजन्य ) ज्वरों में पित्त प्रकुपित हो आता है इस लिये पित्त को शान्त करनेवाली ओषधि के लेने से पित्त शान्त हो कर ज्वर शीघ्र ही उतर जाता है ॥ २– वाग्भट्ट ने लिखा है कि " शुद्धवातक्षयागन्तुजीर्णज्वरिषु लङ्घनम्” नेष्यते इति शेषः, अर्थात् शुद्ध बात में (केवल वातजन्य रोग में), क्षयजन्य (क्षयसे उत्पन्न हुए) ज्वर में, आगन्तुकज्वर में तथा जीर्णज्वर में लघन नहीं करना चाहिये, बस यही सम्मति प्रायः सब आचायों की है ॥ ३- इस ज्वर का सम्बध प्राय. मन के साथ होता है इसी लिये मन को सन्तोष प्राप्त होने से तथा अभीष्ट वस्तु के मिलने से मन की शान्तिद्वारा यह ज्वर उतर जाता है ॥ ४ - जैसे विनाइन आदि से ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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