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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
की लिंगस (अंश) नहीं जाती है तब वह ज्वर धातुओं में छिप कर ठहर जाता है तथा अहित आहार और विहार से दोष कोप को प्राप्त होकर पुनः ज्वर को हैं उसे विषमज्वर कहते हैं, इस के सिवाय इस ज्वर की उत्पत्ति दूसरे कारणों से भी प्रारंभ वश में हो जाती है।
प्रकट कर देते' खराब हवा आदि
लक्षण - विषमज्वर का कोई भी नियत समय नहीं है, न उस में ठंढ वा गर्मी का कोई नियम है और न उस के वेग की ही तादाद है, क्योंकि यह ज्वर किसी समय थोड़ा तथा किसी समय अधिक रहता है, किसी समय ठंढ और किसी समय गर्मी लग कर चढ़ता है, किसी समय अधिक वेग से और किसी समय मन्द ( कम ) वेग से चढ़ता है तथा इस ज्वर में प्रायः पित्त का कोप होता है ।
भेद -- विषम ज्वर के पांच भेद हैं-सन्तत, सतत, अन्येद्युष्क ( एकान्तरा ), तेजरा और चौथिया, अब इन के खरूप का वर्णन किया जाता है:
१ - सन्तत - बहुत दिनोंतक बिना उतरे ही अर्थात् एकसदृश रहनेवाले ज्वर को सन्तत कहते है, यह ज्वर वातिक ( वायु से उत्पन्न हुआ ) सात दिन तक, पैत्तिक ( पिच से उत्पन्न हुआ ) दश दिन तक और कफन ( कफ से उत्पन्न हुआ ) बारह दिन तक अपने २ दोष की शक्ति के अनुसार रह कर चला जाता है, परन्तु पीछे ( उतर कर पुनः ) फिर भी बहुत दिनों तक आता रहता है, यह ज्वर शरीर के रस नामक धातु में रहता है।
१ - तात्पर्य यह है कि जब प्राणी का उपर चला जाता है तब अल्प दोष भी महित आहार और बिहार के सेवन से पूर्ण होकर रस और रक्त आदि किसी धातु में प्राप्त होकर तथा उस को दूषित (विगाड़ ) कर फिर विषम ज्वर को उत्पन्न कर देता है ॥
२- अर्थात् ज्वर की प्रारम्भदशा में जब खराब वा विषैली हवा का सेवन अथवा प्रवेश आदि हो जाता है तब भी वह ज्वर विकृत होकर विषमज्वररूप हो जाता है ॥
३- " विषमज्वर का कोई भी नियत समय नहीं है" इस कथन का तात्पर्य यह है कि जैसे वातजन्य ज्वर सात रात्रि तक पित्तज्वर दश रात्रि तक तथा कफज्वर बारह रात्रि ( दिन ) तक रहता है तथा प्रबल वेग होने से वातजन्य चौदह दिन तक, फिज्वर तीस दिन तक तथा कफज्वर चौबीस दिन तक रहता है, इस प्रकार विषमज्वर नहीं रहता है, अर्थात् इस का नियमित काल नहीं है तथा इस के बेग का भी नियम नहीं है अर्थात् कभी प्रचण्ड वेग से चढ़ता है और कभी मन्द वेग से चढ़ता है
४- इस ज्वर से सततज्वर भिन्न है, क्योंकि सततज्वर प्रायः दिन रात में दो बार चढ़ता है अर्थात एक बार दिन में और एक बार रात्रि में, क्योंकि प्रत्येक दोष का रात दिन में दो बार प्रकोप का समय जाता है परन्तु यह वैसा नहीं है, क्योंकि यह तो अपनी स्थिति के समय बराबर बना ही रहता है ||
५- परन्तु किन्हीं आचार्यों की सम्मति है कि यह ज्वर शरीर के रस और रक नामक (दोनों) धातुओ
में रहता है |