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________________ . १७० । जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ । काम शोक तथा डर से चढ़े हुए ज्वर में पित्त का कोप होता है और भूतादि के प्रतिबिम्ब के बुखार में आवेश होनेसे तीनों दोषोंका कोप होता है, इत्यादि । भेद तथा लक्षण-१-विषजन्य (विषसे पैदा होनेवाला) आगन्तुक ज्वरविष के खाने से चढ़े हुए ज्वर में रोगी का मुख काला पड़ जाता है, सुई के चुमाने के समान पीड़ा होती है, अन्न पर अरुचि, प्यास और मूर्छा होती है, स्थावर विषसे उत्पन्न हुए ज्वर में दस्त भी होते हैं, क्यों कि विष नीचे को गति करता है तथा मल आदि से युक्त वमन (उलटी) भी होती है। २-औषधिगन्धजन्य ज्वर-किसी तेज तथा दुर्गन्धयुक्त वनस्पति की गन्ध से चढ़े हुए ज्वर में मूर्छा, शिर में दर्द तथा कृय (उलटी) होती है। ३-कामज्वर-अभीष्ट (प्रिय) स्त्री अथवा पुरुष की प्राप्ति के न होने से उत्पन्न हुए ज्वर को कामज्वर कहते है, इस ज्वर में चित्तकी अस्थिरता (चञ्चलता), तन्द्रा (ऊंघ) आलस्य, छाती में दर्द, अरुचि, हाथ पैरों का ऐंठना, गलहत (गलहत्या) देकर फिक्र का करना, किसी की कही हुई बात का अच्छा न लगना, शरीर का सूखना, मुँह पर पसीने का आना तथा निश्वास का होना आदि चिह्न होते हैं। ४-भयज्वर-डर से चढ़े हुए ज्वर में रोगी प्रलाप (बकवाद) बहुत करता है। ५-क्रोधज्वर-क्रोध से चढ़े हुए ज्वर में कम्पन ( काँपनी) होता है तथा मुख कड्डा रहता है। ६-भूताभिषङ्गाज्वर-इस ज्वर में उद्वेग, हँसना, गाना, नाचना, कापना तथा अचिन्त्य शक्ति का होना आदि चिह्न होते हैं। इन के सिवाय क्षतज्वर अर्थात् शरीर में घाव के लगने से उत्पन्न होनेवाला ज्वर, दाहज्वर, श्रमज्वर (परिश्रम के करने से उत्पन्न हुआ ज्वर) और छेदज्वर ( शरीर के किसी भाग के कटने से उत्पन्न हुआ ज्वर ) आदिज्वरों का इस आगन्तुक ज्वर में ही समावेश होता है। १-वाग्भट्ट ने इस ज्वर के लक्षण-भ्रम,अरुचि, दाह और लना, निद्रा, बुद्धि और धैर्य का नाश माने हैं । २-श्री के कामज्वर होने पर मूळ, देह का टूटना, प्यास का लगना, नेत्र स्तन और मुख का बञ्चल होना, पसीनों का माना तथा हृदय में दाह का होना ये लक्षण होते है। ३-(प्रश्न) कम्पन का होना वात का कार्य है फिर वह (कम्पन) क्रोष ज्वर में कैसे होता है, क्योंकि क्रोध में तो पित्त का प्रकोप होता है ? (उत्तर) पहिले कह चुके हैं कि एक कुपित हुआ दोष दूसरे दोप को भी कुपित करता है इसलिये पित्त के प्रकोप के कारण बात भी कुपित हो जाता है और उसी से कम्पन होता है, अथवा कोष से केवल पित्त का ही प्रकोप होता है, यह बात नहीं है किन्तु-बात का भी प्रकोप होता है, जैसा कि-विदेह आचार्य ने कहा है कि-"कोषशोको स्मृतौ वातपित्तरका प्रकोपनौ" अर्थात् क्रोध और शोक ये दोनों वात, पित्त और रक को प्रकुपित करनेवाले माने गये हैं, बस जब क्रोध से बात का भी प्रकोप होता है तो उस से कम्पन का होना साधारण बात है ।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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