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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ४६९ की संभावना कैसे हो सकती है ! हां इस समय में हम मुर्शिदाबाद के निवासी धनाढ्य और सेठ साहूकारों को धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते है, क्यों कि उन में अब भी ऊपर कही हुई बात कुछ २ देखी जाती है, अर्थात् उस देश में बड़े रसों में से मकरध्वज और साधारण रसों में विलासगुटिका, ये दो रस प्रायः श्रीमानों के घरों में बने हुए तैयार रहते हैं और मौके पर वे सब को देते भी हैं, वास्तव में यह विद्यादेवी के उपासक होने की ही एकनिशानी है । अन्त में हमारा कथन केवल यही है कि हमारे मरुस्थल देश के निवासी श्रीमान् लोग ऊपर लिखे हुए लेख को पढ़ कर तथा अपने हिताहित और कर्तव्यका विचार कर सन्मार्ग का अवलम्बन करें तो उन के लिये परम कल्याण हो सकता है, क्यों कि अपने कर्तव्य में प्रवृत्त होना ही परलोकसाधन का एक मुख्य सोपान ( सीदी ) है * ॥ आगन्तुक ज्वर का वर्णन || कारण- शस्त्र और लकड़ी आदि की चोट तथा काम, भय और क्रोष आदि बाहर के कारण शरीरपर अपना असर कर ज्वर को उत्पन्न करते है, उसे आगन्तुक ज्वर कहते हैं, यद्यपि अयोग्य आहार और विहार से बिगड़ी हुई वायु भी आमाशय ( होजरी ) में जाकर भीतर की अग्नि को बिगाड़ कर रस तथा खून में मिल कर ज्वर को उत्पन्न करती है परन्तु यह कारण सब प्रकार के ज्वरों का कारण नही हो सकता है क्यों कि ज्वर दो प्रकार का है-शारीरिक और आगन्तुक, इन में से और आगन्तुक परतन्त्र ( पराधीन) है, इन में से शारीरिक ज्वर में ऊपर लिखा हुआ कारण हो सकता है, क्यों कि शारीरिक ज्वर वायु का कोप होकर ही उत्पन्न होता है, किन्तु आगन्तुक ज्वर में पहिले ज्वर चढ जाता है पीछे दोष का कोप होता है, जैसे शारीरिक स्वतन्त्र ( खाँधीन ) १- इन को वहा की बोली में बाबू कहते हैं, इन के पुरुषाजन वास्तव में मरुस्थलदेश के निवासी थे ॥ २ - इस को वहा की देश भाषा मे लक्खी विलासगुटिका कहते हैं ॥ ३- क्योंकि उन के हृदय में दया और परोपकार आदि मानुषी गुण विद्यमान है ॥ ४- उन को स्मरण रखना चाहिये कि यह मनुष्य जन्म बडी कठिनता से प्राप्त होता है तथा वारंवार नहीं मिलता है, इस लिये पशुवत् व्यवहारों को छोड कर मानुषी वर्ताव को अपने हृदय में स्थान दें, विद्वानों और ज्ञानी महात्माओं की सङ्गति करें, कुछ शक्ति के अनुसार शास्त्रों का अभ्यास करें, लक्ष्मी और तब्बन्य विकास को अनित्य समझ कर द्रव्य को सन्मार्ग मे खर्च कर परलोक के सुख का सम्पादन करें, क्योंकि इस मल से भरे हुए तथा अनित्य शरीर से निर्मल और शाखत ( निस्य रहनेवाले) परलोक के सुख का सम्पादन कर लेना ही मानुषी जन्म की कृतार्थता है ॥ ५- आदि शब्द से भूत आदि का आवेश, अभिचार ( घात और मूठ आदि का चलाना ), अभिशाप (ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध और महात्मा आदि का शाप ) विषमक्षण, अभिदाह तथा हड्डी आदि का टूटना, इत्यादि कारण भी समझ लेने चाहियें ॥ ६-यह खाधीन इस लिये है कि अपने ही किये हुए मिथ्या आहार और बिहार से प्राप्त होता है ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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