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________________ · ૧૮ जैनसम्प्रदाय शिक्षा ॥ अवसर (मौका ) पड़ने पर अपने कहे हुए रसों को विद्वान वैद्यों के द्वारा बनवा कर सदा अपने घरों में रखते 'ये' तथा कुटुम्ब, सगे सम्बन्धी और ग़रीब लोगों को देते थे, जिससे रोगियों को तत्काल लाभ पहुँचता था और इस भयंकर रोग से बच जाते थे, परन्तु वर्तमान में वह बात बहुत ही कम देखने में आती है, कहिये ऐसी दशा में इस रोग में फँस कर बेचारे गरीबों की क्या व्यवस्था हो सकती है ? इस पर भी आश्चर्य का विषय यह है कि उक्त रस वैद्यों के पास भी बने हुए शायद ही कही मिल सकते है, क्यों कि उन के बनाने में द्रव्य की तथा गुरुगमता की आवश्यकता है, और न ऐसे दयावान् वैद्य ही देखे जाते हैं कि ऐसी कीमती दवा गरीबों को मुफ्त में दे देवें । पूर्व समय में ऊपर लिखे अनुसार यहां के धनाढ्य सेठ और साहूकार परमार्थ का विचार कर वैद्यों के द्वारा रसोंको बनवा कर रखते थे और समय आने पर अपने कुटु म्बियों सगे सम्बन्धियों और ग़रीबों को देते थे, परन्तु अब तो परमार्थ का विचार, श्रद्धा तथा दया के न होने से वह समय नहीं है, किन्तु अब तो यहां के धनाढ्य लोग अविद्या देवी के प्रसाद से व्याह शादी गांवसारणी और औसर आदि व्यर्थ कामों में हज़ारों रुपये अपनी तारीफ़ के लिये लगा देते हैं और दूसरे अविद्या देवी के उपासक जन भी उन्हीं कामों में व्यय करने से जब उन की तारीफ करते हैं तब वे बहुत ही खुश होते हैं, परन्तु विद्या देवी के उपासक विद्वान् जन ऐसे कामों में व्यय करने की कभी तारीफ़ नही कर सकते है, क्यों कि ऐसे व्यर्थ कार्यों में हज़ारों रुपयोंका व्यय कर देना शिष्टसम्मत (विद्वानों की सम्मति के अनुकूल ) नहीं है। पाठक गण ऊपर के लेख से मरुदेश के धनाढ्यों और सेठ साहूकारों की उदारता का परिचय अच्छे प्रकारले पा गये होंगे, अब कहिये ऐसी दशा में इस देश के कल्याण १ - वर्तमान समय में तो यहा के ( मरुस्थल देश के ) निवासी धनाढ्य सेठ और साहूकार आदि ऐसे मलीन हृदय के हो रहे हैं कि इन के विषय में कुछ कहा नहीं जाता है किन्तु अन्तःकरण में ही महासन्ताप करना पडता है, इन के चरित्र और बर्ताव ऐसे निन्य हो रहे हैं कि जिन्हें देखकर दारुण दुःख उत्पन्न होता है, ये लोग धन पाकर ऐसे मदोन्मत्त हो रहे हैं कि इन को अपने कर्त्तव्य की कुछ भी ध बुधि नहीं है, रातदिन इन लोगों का कुत्सिताचारी दुर्जनों के साथ सहवास रहता है, विद्वान् और ज्ञानवान् पुरुषों की संगति इन्हें घड़ी भर भी अच्छी नहीं लगती है, यदि कोई योग्य पुरुष इन के पास आकर बैठता है तो इन की आन्तरिक इच्छा यही रहती है कि अब यह पुरुष उठ कर जाने और हम उपहास ठट्ठा तथा दिल्लगी बाजी में अपने समय को बितावें, हँसी ठट्ठा करना, स्त्रियों को देखना, उन की चर्चा करना, तास वा चौपट का खेलना, भंग आदि मादक द्रव्यों का सेवन करना, दूसरों की निन्दा करना तथा अमूल्य समय को व्यर्थ मे नष्ट करना, यही इन का रातदिन का कार्य है, यह हम नहीं कहते हैं कि- मह स्थल देशवासी सब ही धनाढ्य सेठ साहूकार आदि ऐसे हैं क्योंकि यहा भी कितनेक विद्वान धर्मात्मा और विचारशील पुरुष देखे जाते हैं जो कि दया और सद्भाव आदि गुणों से युक्त हैं, परन्तु अधिकाश मे उन्हीं लोगों की संख्या है जिन का वर्णन हम अभी कर चुके है । ►
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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