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चतुर्थ अध्याय ॥
३५५ कीजिये, यही आप के पूर्व पुरुषों की सनातन रीति है इसी के अनुसार चलकर प्राचीन काल में तुल्य गुण कर्म और खभाव से युक्त स्त्री पुरुष शास्त्रानुसार स्वयम्वर में विवाह कर गृहस्थाश्रम के आनन्द को भोगते थे, बाल्यावस्था में विवाह होने की यह कुरीति तो इस भारत वर्ष में मुसलमानों की बादशाही होने के समय से चली है, क्योंकि मुसलमान लोग हिन्दुओं की रूपवती अविवाहिता कन्याओं को जबरदस्ती से छीन लेते थे किन्तु विवाहिताओं को नहीं छीनते थे, क्योंकि मुसलमानों की धर्मपुस्तक के अनुसार विवाहिता कन्याओं का छीनना अधर्म माना गया है, बस हिन्दुओं ने "मरता क्या न करता" की कहावत को चरितार्थ किया क्योंकि उन्हों ने यही सोचा कि अब वाल्य विवाह के विना इन (मुसलमानों) से बचने का दूसरा कोई उपाय नहीं है, यह विचार कर छोटे २ पुत्रों और पुत्रियों का विवाह करना प्रारम्भ कर दिया, बस तब से आजतक वही रीति चल रही है, परन्तु प्रियमित्रो! अब वह समय नहीं है अब तो न्यायशीला श्रीमती वृटिश गवर्नमेंट का वह न्याय राज्य है कि जिस में सिंह और बकरी एक घाट पर पानी पीते है, कोई किसी के धर्मपर आक्षेप नहीं कर सकता है और न कोई किसी को विना कारण छेड़ वा सता सकता है, इस के सिवाय राज्यशासकों की अति प्रशंसनीय बात यह है कि वे परस्त्री को बुरी दृष्टि से कदापि नहीं देखते हैं, जव वर्षमान ऐसा शुभ समय है तो अब भी हमारे हिन्दू (आर्य) जनों का इन कुरीतियों को न सुधारना बड़े ही अफ़सोस का स्थान है।
इस के सिवाय एक विचारणीय विषय यह है कि जिस समय जिस वस्तु की प्राप्ति की मन में इच्छा होती है उसी समय उस के मिलने से परम सुख होता है किन्तु विना समय के वस्तु के मिलने से कुछ भी उत्साह और उमंग नहीं होती है और न किसी
१-खयवररुप विवाह परम उत्तम विवाह है, इस मे यह होता था कि कन्या का पिता अपनी जाति के योग्य मनुष्यों को एक तिथिपर एकत्रित होने की सूचना देता था और वे सब लोग सूचना के अनुसार नियमित वियिपर एकत्रित होते थे तथा उन आये हुए पुरुषों में से जिसको कन्या अपने गुण कर्म और खभाव के अनुकूल जान लेती थी उसी के गले में जयमाला (वरमाला) डाल कर उस से विवाह करती यी, बहुधा यह भी प्रथा थी कि खयवरों में कन्या का पिता कोई प्रण करता था तथा उस प्रण को जो पुरुप पूर्ण कर देता था तव कन्या का पिता अपनी कन्या का विवाह उसी पुरुष से कर देता था, इन सब वातों का वर्णन देखना हो तो कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यकृत सस्कृत रामायण तथा पाण्डवचरित्र आदि प्रन्यो को देखो। ...२-इतिहासों से सिद्ध है कि आर्यावर्त के बहुत से राजाओं की भी कन्याओं के डोले यवन वादशाहों ने लिये हैं, फिर भला सामान्य हिन्दुओं की तो क्या गिनती है ।
३-क्योंकि विवाहिता कन्यापर दूसरे पुरुष का (उसके खामी का) हक हो जाता है और इन के मत का यह सिद्धान्त है कि दूसरे के हक में आई हुई वस्तु का छीनना पाप है । ४-सचमुच यही गृहस्थाश्रमका प्रथम पाया भी है।