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________________ २२ जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ ' (३) भाववाचक उन को कहते है जो भाव को प्रकट करें, जैसे-अचानक, अर्थात् , केवल, तथापि, वृथा, सचमुच, नही, मत, मानो, हां, खयम् , झटपट, ठीक, इत्यादि ॥ (४) परिमाणवाचक-परिमाण बतलानेवालों को कहते हैं, जैसे-~-अत्यन्त, अधिक, कुछ, प्रायः, इत्यादि ॥ २-- सम्बंधबोधक अव्यय उन्हें कहते है-जो वाक्य के एक शब्द का दूसरे शब्द के साथ सम्बंध वतलाते है, जैसे-आगे, पीछे, संग, साथ, भीतर, बदले, तुल्य, नीचे, ऊपर, बीच, इत्यादि ॥ ३- उपसर्गों का केवल का प्रयोग नहीं होता है, ये किसी न किसी के साथ ही में रहते हैं, संस्कृत में जो-म आदि उपसर्ग हैं वे ही हिन्दी में समझने चाहिये, वे उपसर्ग ये हैं-प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस् , निर, दुस् , दुर्, वि, आ, नि, अधि, __ अपि, अति, सु, उत्, प्रति, परि, अमि, उप || - संयोजक अव्यय उन्हें कहते हैं जो अव्यय पदों वाक्यों वा वाक्यखंडों में आते हैं और अन्वय का संयोग करते है, जैसे-और, यदि, अथ, कि, तो, यथा, एवम् , भी, पुनः, फिर, इत्यादि ॥ ५- विभाजक अव्यय उन्हें कहते है जो अव्यय पदों वाक्यों वा वाक्यखण्डों के मध्य में आते है और अन्वय का विभाग करते है, जैसे-अथवा, परन्तु, चाहें, क्या, किन्तु, वा, जो, इत्यादि । ६- विस्मयादिबोधक अव्यय उन्हें कहते हैं जिनसे-~अन्तःकरण का कुछ भाव या दशा प्रकाशित होती है, जैसे-आह, हहह, मोहो, हाय, धन्य, छीछी, फिस, विक् , दूर, इत्यादि ॥ यह प्रथमाध्याय का शब्दविचार नामक चौथा प्रकरण समाप्त हुआ ॥ पांचवां प्रकरण-वाक्यविचार ॥ पहिले कह चुके हैं कि—पदों के योग से वाक्य बनता है, इस में कारकसहित संज्ञा तथा क्रिया का होना अति आवश्यक है, वाक्य दो प्रकार के होते हैं-एक कर्तृप्रधान और दूसरा कर्मप्रधान ॥ १- जिसमें कर्ता प्रधान होता है उस वाक्य को कर्तृप्रधान कहते हैं, इस प्रकार के वाक्य में यद्यपि आवश्यकता के अनुसार सब ही कारक आ सकते हैं परन्तु इस में
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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