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________________ २१ प्रथम अध्याय ॥ क्रिया के कर्ता के आगे अपूर्णभूत को छोड़कर शेष मूतों में 'ने' का चिह्न आता है, जैसे-लड़का पढ़ता है, पण्डित पढ़ाता था, परन्तु पूर्णभूत आदि में गुरु ने पढ़ाया था, इत्यादि । २-- कर्म उसे कहते हैं जिस में क्रिया का फल रहे, इस का चिह 'को' है. जैसे मोहन को बुलाओ, पुस्तक को पढ़ो, इत्यादि ॥ ३-- करण उसे कहते हैं जिस के द्वारा कर्ता किसी कार्य को सिद्ध करे, इस का चिह्न 'से' है, जैसे-चाकू से कलम वनाई, इत्यादि ॥ ४- सम्प्रदान उसे कहते हैं जिस के लिये कर्ता किसी कार्य को करे, इस के चिह 'को' के लिये हैं, जैसे-मुझ को पोथी दो, लड़के के लिये खिलौना लाओ, इत्यादि । ५- अपादान उसे कहते हैं कि जहां से क्रिया का विभाग हो, इस का चिह्न 'से' है, जैसे-वृक्ष से फल गिरा, घर से निकला, इत्यादि ॥ ६- सम्बन्ध उसे कहते है जिससे किसी का कोई सम्बंध प्रतीत हो, इस का चिह्न का, की, के, है, जैसे-राजा का घोड़ा, उस का घर, इत्यादि । ७- अधिकरण उसे कहते हैं कि कर्ता और कर्म के द्वारा जहां पर कार्य का करना पाया जावे, उसका चिह्न में, पर, है, जैसे-आसन पर बैठो, फूल में सुगन्धि है, चटाईपर सोओ, इत्यादि। ८- सम्बोधन उसे कहते हैं जिस से कोई किसी को पुकारकर या चिताकर अपने सम्मुख करे, इस के चिह्न हे, हो, अरे, रे, इत्यादि है ।। जैसे-हे भाई, अरे नौकर, अरे रामा, अय लड़के इत्यादि । अव्ययों का विशेष वर्णन ॥ प्रथम कह चुके हैं कि अन्यय उन्हें कहते हैं जिनमें लिंग, वचन और कारक के कारण कुछ विकार नहीं होता है, अव्ययों के छः भेद हैं क्रियाविशेषण, सम्बंधवोधक, उपसर्ग, संयोजक, विभाजक और विसयादिबोधक ॥ १- क्रियाविशेषण अव्यय वह है-जिस से क्रिया का विशेष, काल और रीति आदि का वोष हो, इस के चार भेद हैं-कालवाचक, स्थानवाचक, भाववाचक और परिमाणवाचक ॥ (१) कालवाचक-समय बतलानेवाले को कहते है, जैसे-~अव, तब, जव, कल, फिर, सदा, शाम, प्रातः, परसों, पश्चात् , तुरन्त, सर्वदा, शीघ्र, कब, एकवार, वारंवार, इत्यादि ॥ (२) स्थानवाचक-स्थान बतलानेवाले को कहते हैं, जैसे यहां, नहां, वहां, कहां, तहां, इधर, उघर, समीप, दूर, इत्यादि ।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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