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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २९१ भाफ उठ कर हवा को बिगाड़ती है, विशेष कर जो देश नीचे है अर्थात् जहां बरसात का पानी भरा रहता है वहां भाफ के अधिक उठने के कारण हवा अधिक बिगड़ती है, बस यही जुईरीली हवा ज्वर को पैदा करने वाली है, इस लिये शीतज्वर, एकान्तर, तिजारी और चौथिया आदि विषम ज्वरों की यही खास ऋतु है, ये सब ज्वर केवल पित्त के कुपित होने से होते है, बहुत से मनुष्यों की सेवा में तो ये ज्वर प्रतिवर्ष आकर हाजिरी देते है और बहुत से लोगों की सेवा को तो ये मुद्दततक उठाया करते हैं, जो ज्वर शरीर में मुद्दततक रहता है वह छोड़ता भी नहीं है किन्तु शरीर को मिट्टी में मिला कर अर्थात् तिल्ली बढ़ अनेक कष्ट देता है ही पीछा छोड़ता है तथा रहने के समय में भी जाती है, रोगी कुरूप हो जाता है तथा जब ज्वर जीर्णरूप से शरीर में निवास करता है तब वह वारंवार वापिस आता और जाता है अर्थात् पीछा नही छोड़ता है, इस लिये इस ऋतुमें बहुत ही सावधानता के साथ अपनी प्रकृति तथा ऋतु के अनुकूल आहार विहार करना चाहिये, इस का संक्षेप से वर्णन इस प्रकार से है कि: १- इस ऋतु में यथाशक्य पित्त को शान्त करने का उपाय करना चाहिये, पित्त को जीतने वा शान्त करने के मुख्य तीन उपाय हैः (A)- पित्त के शमन करनेवाले खान पान से और दवा से पित्त को दबाना चाहिये । (B) वमन और विरेचन के द्वारा पित्त को निकाल डालना चाहिये । (C) फरत खुलवा कर या जोंक लगवा कर खून को निकलवाना चहिये । २ - वायु की प्रकृतिवाले को शरद् ऋतु में घी पीकर पित्त की शान्ति करनी चाहिये । ३-पित्त की प्रकृतिवाले को कडुए पदार्थ खानेपीने चाहियें, कडुए पदार्थों में नीम पर की गिलोय, नीम की भीतरी छाल, पित्तपापड़ा और चिरायता आदि उत्तम और गुण १- इस हवा को अग्रेजी में मलेरिया कहते हैं तथा इस से उत्पन्न हुए ज्वर को मलेरिया फीवर कहते हैं। २- बहुत से प्रमादी लोग इस ऋतु में ज्वरादि रोगों से मस्त होने पर भी अज्ञानता के कारण आहार बिहार का नियम नहीं रखते हैं, बस इसी मूर्खता से वे अत्यन्त भुगत २ कर मरणान्त कष्ट पाते है ॥ ३- यदि वमेन और विरेचन का सेवन किया जावे तो उसे पथ्य से करना उचित है, क्योंकि पुरुष का विरेचन ( जुलाव ) और स्त्री का जापा ( प्रसूतिसमय ) समान होता है इसलिये पूर्ण वैद्य की सम्मति से अथवा आगे इमी अन्य में लिखी हुई विरेचन की विधि के अनुसार विरेचन लेना ठीक है, हा इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि जब विरेचन लेना हो तब शरीर में घृत की मालिस करा के तथा घी पीकर तीन चाहिये, घी पीने वर्णन आगे किया पाच या सात दिनतक पहिले वमन कर फिर तीन दिन ठहर कर पीछे विरेचन लेना की मात्रा नित्य की दो तोले से लेकर चार तोलेतक की काफी है, इन सब बातों का जायगा ॥ ४- यह तीसरा उपाय तो विरले लोगों से ही भाग्ययोग से वन पडता है, उपाय है वे तो सहज और सब से हो सकने योग्य है परन्तु तीसरा उपाय कठिन योग्य नहीं है ॥ क्योंकि पहिले जो दो अर्थात् सब से हो सकने
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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