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जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥
अथवा
कारी पदार्थ हैं, इसलिये इन में से किसी एक चीन की फँकी ले लेना चाहिये, रात को भिगो कर प्रातः काल उस का काथ कर ( उबाल कर ) छान कर तथा ठंडा कर मिश्री डालकर पीना चाहिये, इस दवा की मात्रा एक रुपये भर है, इस से ज्वर नहीं आता है और यदि ज्वर हो तो भी चला जाता है, क्योंकि इस दवा से पित्त की शान्ति जाती है।
४- पित्त की प्रकृतिवाले के लिये दूसरा इलाज यह भी है कि वह दूष और मिश्री के साथ चावलों को खावे, क्योंकि इस के खानेसे भी पित्त शान्त हो जाता है ।
५ - पित्त की प्रकृतिवाले को पित्तशामक जुलाब भी ले लेना चाहिये, उस से भी पित्त निकल कर शान्त हो जावेगा, वह जुलाब यह है कि- अमृतसर की हरड़ें अथवा छोटी हरड़ें अथवा निसोतकी छाल, इन तीनों चीजों में से किसी एक चीज़ की फंकी बूरा मिला कर लेनी चाहिये तथा दाल भात या कोई पतला पदार्थ पथ्य में लेना चाहिये, ये सब साधारण दस्त लानेवाली चीजें हैं ।
६ - इस ऋतु में मिश्री, बूरा, कन्द, कमोद वा साठी चावल, दूध, ऊख, सेंधा नमक ( थोड़ा ), गेहू, नौ और मूंग पथ्य हैं, इस लिये इन को खाना चाहिये ।
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७ -- जिस पर दिन में सूर्य की किरणें पड़ें और रात को चन्द्रमा की किरणें पढ़ें, ऐसा नदी तथा तालाब का पानी पीना पथ्य है ।
८ - चन्दन, चन्द्रमा की किरणें, फूलों की मालायें और सफेद वस्त्र, ये भी शरद् ऋतु में पथ्य है ।
९- वैद्यकशास्त्र कहता है कि -मीष्म ऋतु में दिन को सोना, हेमन्त ऋतु में गर्म और पुष्टिकारक खुराक का खाना और शरद् ऋतु में दूष में मिश्री मिला कर पीना चाहिये, इस प्रकार वर्ताव करने से प्राणी नीरोग और दीर्घायु होता है ।
१० - रक्तपित्त के लिये जो २ पथ्य कहा है वह २ इस ऋतु में भी पथ्य है ॥
इस ऋतु में अपथ्य - ओस, पूर्व की हवा, क्षार, पेट भर भोजन, दही, खिचडी, तेल, खटाई, सोंठ और मिर्च आदि तीखे पदार्थ, हिंग, खारे पदार्थ, अधिक चरवीवाले पदार्थ, सूर्य तथा अभि का ताप, गरमागरम रसोई, दिन में सोना और भारी खुराक इन सब का योग करना चाहिये ॥
१- इस ऋतु में पेट भर खाने से बहुत हानि होती है, वैद्यकशास्त्र में कार्तिक वदि अष्टमी से लेकर मृगशिर के आठ दिन बाकी रहने तक दिनों को यमदाढ कहा गया है, जो पुरुष इन दिनों में थोडा और हलका भोजन करता है वहीं यम की दाढ से बचता है ॥
२- शरीर की नीरोगता के लिये उक्त बातों का जो त्याग है वह भी तप है, क्योंकि इच्छा का जो रोधन करना (रोकना ) है उसी का नाम तप है ॥