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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा || २४२ लोगों को सदा उसी मार्ग पर चलना उचित है जिसपर चलने से उनके धर्म, यश, सुख, आरोग्यता, पवित्रता और प्राचीन मर्यादा का नाश न हो, क्योंकि इन सब का संरक्षण कर मनुष्य जन्म के फल को प्राप्त करना ही वास्तवमें मनुष्यत्व है ॥ - तैलवर्गं ॥ तैल यद्यपि कई प्रकार का होता है - परन्तु विशेषकर मारवाड़ में तिली का और बंगाल तथा गुजरात आदि में सरसों का तेल खाने आदि के काम में आता है, तेल खाने की अपेक्षा जलाने में तथा शरीर के मर्दन आदि में विशेष उपयोग में आता है, क्योंकि उत्तम खान पान के करने वाले लोग तेल को बिलकुल नहीं खाते है और वास्तव में घृत जैसे उत्तम पदार्थ को छोड़कर बुद्धि को कम करनेवाले तेल को खाना भी उचित नहीं है, हां यह दूसरी बात है कि तेल सस्ता है तथा मौठ गुवारफली और चना आदि वातल सुखाद ( लज्जतदार ) हो ( वातकारक ) पदार्थ मिर्च मसाला डाल कर तेल में तेलने से जाते हैं तथा बादी भी नही करते है, इतने अंश में यदि तैल खाया जावे तो यह मिन्न बात है परन्तु घृतादि के समान इस का उपयोग करना उचित नहीं है जैसा कि गुजरात नें लोग मिठाई तक तेल की बनी हुई खाते है और बंगालियों का तो तेल जीवन ही बन रहा है, हां अलबत्ता जोधपुर मेवाड़ नागौर और मेड़ता आदि कई एक राज्यस्थानों में लोग तेल को बहुत कम खाते हैं । गृहस्थ के प्रतिदिन के आवश्यक पदार्थों में से तेल भी एक पदार्थ है तथा इस का उपयोग भी प्रायः प्रत्येक मनुष्य को करना पड़ता है इस लिये इस की जातियों तथा गुण दोषों का जान लेना प्रत्येक मनुष्य को अत्यावश्यक है अतः इस की जातियों तथा गुण दोषों का संक्षेप से वर्णन करते है: — · तिल का तेल – यह तैल शरीर को दृढ करनेवाला, बलवर्धक, त्वचा के वर्ण को अच्छा करनेवाला, वातनाशक, पुष्टिकारक, अग्निदीपक, शरीर में शीघ्र ही प्रवेश करनेवाला और कृमि को दूर करनेवाला है, कान की, योनि की और शिर की शूल को मिटाता है, शरीर को हलका करता है, टूटे हुए, कुचले हुए, दबे हुए और कटे हुए हाड़ को तथा अग्नि से जले हुए को फायदेमन्द है । तेल के मर्दन में जो २ गुण कल्पसूत्र में लिखे है वे किसी ओषधि के साथ पके हुए तेल के समझने चाहियें किन्तु खाली तेल में उतने गुण नहीं है । १–जैसे कि मौठ के भुजिये (सेव) वीकानेर मे तेल मे तलकर बहुत ही अच्छे वनते हैं और वहां के लोग उन्हें बडी शौक से खाते हैं, चने और मौठ के सेव प्राय. सब ही देशों में तेल मे ही बनते है और उन्हें गरीब अमीर प्रायः सब ही खाते हैं ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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