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________________ २२२ जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ क्योंकि देखो ! सदा पथ्य और परिमित (परिमाण के अनुकूल ) आहार करनेवालों को भी जो अकस्मात् रोग हो जाता है उस का कारण भी वही अज्ञानता के कारण पूर्व समय में किया हुआ संयोग विरुद्ध आहार ही होता है, क्योंकि वही (पूर्व समयमें किया हुआ संयोगविरुद्ध आहार ही) समय पाकर अपने समवायों के साथ मिलकर झट मनुप्यको रोगी कर देता है, संयोगविरुद्ध आहार के बहुत से भेद हैं-उन में से कुछ भेदों का वर्णन समयानुसार क्रम से आगे किया जायेगा । घृत वर्ग ॥ घी के सामान्य गुण-धी रसायन, मधुर, नेत्रों को हितकर, अग्निदीपक, गीतवीर्यवाला, बुद्धिवर्धक, जीवनदाता, शरीर को कोमल करनेवाला, वल कान्ति और वीर्य को बढानेवाला, मलनिःसारक (मल को निकालनेवाला), भोजन में मिठास दनवाला, वायुवाले पदार्थों के साथ खाने से उन (पदार्थों) के वायु को मिटानेवाला, गुमड़ों को मिटानेवाला, जखमी को बल देनेवाला, कण्ठ तथा खर का शोधक (शुद्ध करनेवाला), मेद और कफ को बढानेवाला तथा अमिदग्ध (आग से जले हुए) को लाभदायक है, वातरक्त, अजीर्ण, नसा, शूल, गोला, दाह, शोथ (सूजन), भय और कर्ण (कान) तथा मस्तक के रक्तविकार आदि रोगों में फायदेमन्द है, परन्तु साम ज्वर (आम के सहित बुखार) में और सन्निपात के ज्वर में कुपथ्य (हानिकारक) है, सादे ज्वर में बारह दिन वीतने के बाद कुपथ्य नहीं है, बालक और वृद्ध के लिये प्रतिकूल है, बदा हुआ क्षय रोग, कफ का रोग, आमवात का रोग, ज्वर, हैना, मलबन्ध, बहुत मदिरा के पीने से उत्पन्न हुआ मदात्यय रोग और मन्दामि, इन रोगों में घृत हानि करता है, साधारण मनुष्यों के प्रतिदिन के भोजन में, थकावट में, क्षीणता में, पाण्डुरोग में और आंख के रोग में ताज़ा घी फायदेमन्द है, मूर्छा, कोढ़, विष, उन्माद, वादी तथा तिमिर रोग में एक वर्ष का पुराना घी फायदेमन्द है। श्वास रोग वाले को बकरी का पुराना घी अधिक फायदेमन्द है। गाय और भैस आदि के दूध के गुणों में नो २ अन्तर कह चुके हैं वही अन्तर उन के घी में भी समझ लेना चाहिये। वह दून का तथा सयोगविरुद्ध आहार का (प्रसंगवश) कुछ वर्णन किया है तथा कुछ वर्णन योगविरुद्ध आहार का (ऊपर लिखी प्रतिना के अनुसार) आगे किया जायगा, इन दोनों का शेष वर्णन वैद्यक प्रन्या में देखना चाहिये। २-धी को तपा कर तथा छान कर खाने के उपयोग ने लाना चाहिये ॥ , ३-इस के सिवाय जिस १ पशुके दूधमें जो २ गुण कहे है वही गुण उस पशु के घी में भी जानने चाहियें।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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