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कषैला रस है उस कषैले रस का मित्र हरड़ है तथा दूध में खारा रस है उस खारे रस का मित्र सेंधानमक है, इन के सिवाय गेहूं के पदार्थ अर्थात् पूरी और रोटी आदि, चावल, घी, मक्खन, दाख, शहद, मीठे आम के फल, पीपल, काली मिर्च, तथा पाकों में जिन का उपयोग होता है वे पुष्टि और दीपन के सव पदार्थ भी दूध के मित्र वर्ग में हैं ॥
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चतुर्थ अध्याय ॥
दूध के अमित्र (शत्रु ) - सेंधे नमक को छोड़ कर बाकी के सब प्रकार के खार दूध के गुण को बिगाड़ डालते हैं, इसी प्रकार ऑबले के सिवाय सब तरह की खटाई, गुड़, मूँग, मूली, शाक, मद्य, मछली, और मांस दूध के सग मिल कर शत्रु का काम करते है, देखो ! दूघ के सङ्ग नमक वा खार, गुड़, मूंग, मौठ, मछली और मांस के खाने से कोट आदि चर्मरोग हो जाते है, दूध के साथ शाक, मद्य और आसव के खाने से पित्त के रोग होकर मरण हो जाता है ॥
ऊपर लिखी हुई वस्तुओं को दूध के साथ खाने पीने से जो अवगुण होता है यद्यपि उस की खबर खानेवाले को शीघ्र ही नहीं मालूम पड़ती है तथापि कालान्तर में तो वह अवगुण प्रवलरूप से प्रकट होता ही है, क्योंकि सर्वज्ञ परमात्मा ने भक्ष्याभक्ष्य निर्णय में जो कुछ कथन किया है तथा उन्हीं के कथन के अनुसार जैनाचार्य उमाखाति वाचक आदि के बनाये हुए ग्रन्थों में तथा जैनाचार्य श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज के बनाये हुए 'विवेकविलास, चर्चरी, आदि ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है वह अन्यथा कभी नहीं हो सकता है, क्योंकि उक्त महात्माओं का कथन तीन काल में भी अबाधित तथा युक्ति और प्रमाणों से सिद्ध है, इस लिये ऐसे महानुभाव और परम परोपकारी विद्वानों के वचनों पर सदा प्रतीति रख कर सर्व जीवहितकारक परम पुरुष की आज्ञा के अनुसार चलना ही मनुष्य के लिये कल्याणकारी है, क्योंकि उन का सत्य वचन सदा पथ्य और सब के लिये हितकारी है ।
देखो ! सैकड़ों मनुष्य ऊपर लिखे खान पान को ठीक तौर से न समझ कर जव अनेक रोगों के झपाटे में आ जाते है तब उन को आश्चर्य होता है कि अरे यह क्या हो गया ! हम ने तो कोई कुपथ्य नहीं किया था फिर यह रोग कैसे उत्पन्न हो गया ! इस प्रकार से आश्चर्य में पड़ कर वे रोग के कारण की खोज करते है तो भी उन को रोग का कारण नहीं मालूम पड़ता है, क्योंकि रोग के दूरवर्ती कारण का पता लगाना बहुत कठिन बात है, तात्पर्य यह है कि बहुत दिनों पहिले जो इस प्रकार के विरुद्ध खान पान किये हुए होते है वे ही अनेक रोगों के दूरवर्त्ती कारण होते है अर्थात् उन का असर शरीर में विष के तुल्य होता है और उन का पता लगना भी कठिन होता है, इस लिये मनुष्यों को जन्मभर दुःख में ही निर्वाह करना पड़ता है, इस लिये सर्व साधारण को उचित है कि—संयोगबिरुद्ध भोजनों को जान कर उन का विष के तुल्य त्याग कर देवें,