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चतुर्थ अध्याय ॥
१७५ गहरा होता है अर्थात् साठ पुरस का होता है तो उस कुँए के जल तक उस मैले पानी का पहुँचना सम्भव नहीं होता है ।
इसी प्रकार से जिन कुँओं पर वृक्षों के झुण्ड लगे रहते हैं वा झूमा करते है तो उन (कुओं) के जल में उन वृक्षों के पचे गिरते रहते है तथा वृक्षों की आड़ रहने से सूर्य की गर्मी भी जलतक नहीं पहुंच सकती है, ऐसे कुँओं का जल प्रायः विगड़ जाता है ।
इस के सिवाय-जिन कुँओं में से हमेशा पानी नहीं निकाला जाता है उन का पानी भी बन्द (बंधा) रहने से खराब हो जाता है अर्थात् पीने के लायक नहीं रहता है, इसलिये जो कुंभा मजबूत बँधा हुआ हो, नहाने धोने के पानी का निकास जिस से दूर जाता हो, जिस के आस पास वृक्ष या मैलापन न हो और जिस की गार (कीचड़) वार २ निकाली जाती हो उस कुँए का, आस पास की पृथिवी का मैला कचरा जिस के जल में न जाता हो उस का, बहुत गहरे कुँए का तथा खारी पनसे रहित पृथिवी के कुँए का पानी साफ़ और गुणकारी होता है ॥
कुण्ड का पानी कुण्ड का पानी बरसात के पानी के समान गुणवाला होता है, परन्तुं जिस छत से नल के द्वारा आकाशी पानी उस कुण्ड में लाया जाता है उस छत पर धूल, कचरा, कुत्ते विल्ली आदि जानवरों की वीट तथा पक्षियों की विष्ठा आदि मलीन पदार्थ नही रहने चाहिये, क्योंकि इन मलीन पदार्थों से मिश्रित होकर जो पानी कुण्ड में जायगा वह विकारयुक्त और खराब होगा, तथा उस का पीना अति हानिकारक रोगा, इस लिये मैल और कचरे आदि से रहित खच्छता के साथ कुण्ड में पानी लाना चाहिये, क्योंकि-खच्छता के साथ कुण्ड में लाया हुआ पानी अन्तरिक्ष जल के समान बहुत गुणकारक होता है, परन्तु यह भी सरण रखना चाहिये कियह जल भी सदा बन्द रहने से बिगड़ जाता है, इस लिये हमेशा यह पीने के लायक नहीं रहता है।
कुण्ड का पानी खाद में मीठा और ठंढा होता है तथा पचने में भारी है।
पानी के गुणावगुण को न समझने वाले बहुत से लोग कई वर्षों तक कुण्ड को धोकर साफ नहीं करते है तथा उस के पानी को बड़ी तंगी के साथ खरचते है तथा पिछले चौमासे के बचे हुए जल में दूसरा नया वरसा हुआ पानी फिर उस में ले लेते है, वह 'नी वड़ा भारी नुकसान पहुंचाता है इस लिये कुण्डके पानी के सेवन में ऊपर कही हुई
तों का अवश्य खयाल रखना चाहिये तथा एक बरसात के हो चुकने के बाद जब छत छप्पर और मोहरी आदि घुल कर साफ हो जावें तव दूसरी बरसात का पानी कुण्ड में ना चाहिये तथा जल को छान कर उस के जीवों को कुंए के बाहर कुण्डी आदि में