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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ १५१ शालाओं के द्वारा हो रहा हैं तथा दूसरा ओषधिदान हैं जो कि अस्पताल और शिफाखानोंके द्वारा किया जा रहा हैं। पहिले कह चुके हैं कि शरीर संरक्षण के नियम वहुधा दो भागोंमें विभक्त है अर्थात् रोग को अपने समीप में न आने देना तथा आये हुए रोगको हटा देना, इन दोनों में से वर्तमान समय में यदि चारों तरफ दृष्टि फैला कर देखा जाये तो लोगों का विशेष समुदाय ऐमा देखा जाता है कि-जिस का ध्यान पिछले भागमें ही हैं, किन्तु पूर्व भाग की तरफ बिलकुल ध्यान नहीं है अर्थात् रोग के आने के पीछे उस की निवृत्ति के लिये इधर उधर दौड़धूप करना आदि उपाय करते है, परन्तु किस प्रकार का वर्ताव करने से रोग समीप में नहीं आ सकता है अर्थात् आरोग्यता बभी रह सकती है, इस बात को जनसमूह नहीं सोचताहै और इस तरफ यदि लोगों की दृष्टि है भी तो बहुत ही थोड़े लोगों की है और वे प्रायः आरोग्यता बनी रहने के नियमों को भी नहीं समझते है, बस यही अज्ञानता अनेक व्याधिजन्य दुःखों की जड़है, इसी अज्ञानता के कारण मनुष्य प्रायः अपने और दूसरे सवों के शरीर की खरावी किया करते हैं, ऐसे मनुष्यों को पशुओं से भी गया वीता समझना चाहिये, इसलिये प्रत्येक मनुप्य का यह सब से प्रथम कर्तव्य है कि वह अपनी आरोग्यता के समस्त साधनों (जितने कि मनुष्य के आधीन हैं ) के पालन का यत्न अवश्य करे अर्थात् आनेवाले रोग के मार्ग को प्रथम से ही बन्द कर दे, देखो ! यह निश्चय की हुई बात है कि आरोग्यता के नियमों का जानने वाला मनुष्य १-आरोग्यता के सव नियम मनुष्य के आधीन नहीं है, क्योंकि बहुत से नियम तो देवाधीन अर्थात्कर्मखभाव वश हैं, बहुत से राज्याधीन है, बहुत से लोकसमुदायाधीन है और बहुत से नियम प्रत्येक मनुष्य के आधीन हैं, जैसे-देखो। एकदम ऋतुओं के परिवर्तन का होना, हैजा, मरी, विस्फोटक, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अति शीत और अति उष्णता का होना आदि देवाधीन (समुदायी कर्म के आधीन) कार्यों में मनुष्यका कुछ भी उपाय नहीं चल सकता है, नगर की यथायोग्य खच्छता आदि के न होने से दुर्गन्धि आदि के द्वारा रोगोत्पत्ति का होना आदि कई एक कार्य राज्याधीन है, लोकप्रया के अनुसार चालविवाह (कम अवस्था में विवाह) और जीमणवार आदि कुचालों से रोगोत्पत्ति होना आदि कार्य जाति वा समाज के आधीन है, क्योंकि इन कार्यों में भी एक मनुष्य का कुछ भी उपाय नहीं चल सकता है और प्रत्येक मनुष्य खान पान आदि की अज्ञानता से खय अपने शरीर में रोग उत्पन्न कर लेवे अथवा योग्य वर्ताव कर रोगोंसे बचा रहे यह बात प्रत्येक मनुष्यके आधीन है, हा यह वात अवश्य है कि यदि प्रत्येक मनुष्य को भारोग्यता के नियमों का यथोचित ज्ञान हो तब तो सामाजिक तथाजातीय सुधार भी हो सकता है तथा सामाजिक सुधार होने से नगर की स्वच्छता होना आदि कार्यों में भी सुधार हो सकता है, इस प्रकार से प्रत्येक मनुष्य के आधीन जो कार्य नहीं हैं अर्थात् राज्याधीन वा जायाधीन हैं उनकाभी अधिकांशमें सुधार हो सकता है, हां केवल दैवाधीन अशमें मनुष्य कुछ भी उपाय नहीं कर सकता है, क्योकि-निकाचित कर्म वन्धन अति प्रवल है, इस का उदाहरण प्रत्यक्ष ही देख लो कि-प्लेग राक्षसी कितना कष्ट पहुंचा रही है और उसकी निवृत्ति के लिये किये हुए सव प्रयत्न व्यर्थ जा रहे है।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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