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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा ।। विपत्ति का और भी सामना करना पड़ताहै-जिस का वर्णन करने में हृदय अत्यंत कम्पायमान होता है तथा वह विपत्ति इस जमाने में और भी बढ़ रही है, वह यह है किइस वर्तमान समय में बहुत से अपठित मूर्ख वैद्य भी चिकित्सा का कार्य कर अपनी आजीविका चला रहे हैं अर्थात् वैद्यक विद्या भी एक दूकानदारी का रुजगार बन गई है, अब कहिये जब रोग के निवर्तक वैद्यों की यह दशा है तो रोगी को विश्राम कैसे प्राप्त होसकता है। शास्त्रों में लिखा है कि-वैद्य को परम दयाल तथा दीनोपकारक होना चाहिये, परन्तु वर्तमान में देखिये कि-क्या वैद्य, क्या डाक्टर प्रायः दीन, हीन, महा दु:खी और परम गरीबों से भी रुपये के विना बात नही करते हैं अर्थात् जो हाथ से हाथ मिलाताहै उसी की दाद फर्याद सुनते और उसी से बात करते है, वैद्य वा डाक्टरों का तो दोनों के साथ यह वर्ताव होताहै, अव तनिक द्रव्य पात्रों की तरफ दृष्टि डालिये कि वे इस विषय में दीनों के हित के लिये क्या कर रहे है, द्रव्य पात्र लोग तो अपनी २ धुन में मस्त है, काफी द्रव्य होने के कारण उन लोगों को तो वीमारी के समय में वैद्य वा डाक्टरों की उपलब्धि सहज में हो सकने के कारण विशेष दुःख नहीं होता है, अपने को दुःख न होने के कारण प्रमाद में पड़े हुए उन लोगों की दृष्टि भला गरीवों की तरफ कैसे जा सकती है ! वे कब अपने द्रव्य का व्यय करके यह प्रबंध कर सकते हैं कि-दीन जनों के लिये उत्तमोचम औषधालय आदि बनवा कर उन का उद्धार करें, यद्यपि गरीब जनों के इस महा दुःख को विचार कर ही श्रीमती न्यायपरायणा गवर्नमेंट ने सर्वत्र औषधालय (शिफाखाने ) वनवाये हैं, परन्तु तथापि उन में गरीबों की यथोचित खबर नही ली जाती है, इसलिये डाक्टर महोदयों का यह परम धर्म है कि वे अपने हृदय में दया रख कर गरीबों का इलाज द्रव्यपात्रों के समान ही करें, एवं हवा पानी और वनस्पति, ये तीनों कुदरती दवायें पृथ्वी पर खभाव से ही उपस्थित है तथा परम कृपाल परमेश्वर श्री ऋषभदेवने इन के शुम योग और अशुभ योग के ज्ञान का भी अपने श्रीमुख से आत्रेय पुत्र आदि प्रजा को उपदेश देकर आरोग्यता सिखलाई है, इस विषय को विचार कर उक्त तीनों वस्तुओं का सुखदायी भीग जानना और दूसरों को बतलाना वैद्यों का परम धर्म है, क्योंकि ऐसा करने में कुछ भी खर्च नहीं लगता है, किन्तु जिस दवा के वनाने में खर्च भी लगता हो वह भी अपनी शक्ति के अनुसार बनाकर दीनोंको विना मूल्य देना चाहिये तथा जो खयं बाजार से औपधि को मोल लाकर बना सकते हैं उनको नुसखा लिखकर देना चाहिये परन्तु नुसखा लिखने में गलती नहीं करनी चाहिये, इसीप्रकार द्रव्यपात्रों को भी चाहिये कि-योग्य और विद्वान् वैद्यों को द्रव्य की सहायता देकर उन से गरीबों को ओषधि दिलावे-देखो। श्रीमती वृटिश गवर्नमेंट ने भी केवल दो ही दानों को पसन्द किया है, जिन को हम सब लोग नेत्रों के द्वारा प्रत्यक्ष ही देख रहे है अर्थात् पहिला दान विद्या दान है जो कि-पाठ
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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