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________________ ३२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश स्पष्टतया अथवा प्रकरणसे इसके विरुद्ध न हो वहाँ ऐसे अवसरों पर इस पदका प्राशय जरूर लिया जाना चाहिये । अस्तु । जब यह स्पष्ट हो जाता है कि वीरनिर्वाणसे ६०५.वर्ष ५ महीने पर शकराजाके राज्यकालकी समाप्ति हुई और यह काल ही शकसम्बत्की प्रवृत्तिका काल है-जैसा कि ऊपर जाहिर किया जा चुका है-तब यह स्वतः मानना पड़ता है कि विक्रमराजाका राज्यकाल भी वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष ५ महीनके अनन्तर समाप्त हो गया था और यही विक्रमसम्वत्की प्रवृत्तिका काल है--तभी दोनों सम्बतोंमें १३५ वर्षका प्रसिद्ध अन्तर बनता है। और इस लिये विक्रमसम्वत्को भी विक्रमके जन्म या राज्यारोहणका संवत् न कहकर, वीरनिर्वाण या बद्ध निर्वाण-संवतादिककी तरह, उसकी स्मृति या यादगारमे कायम किया हुआ मृत्यु-संवत् कहना चाहिये । विक्रमसंवत् विक्रमकी मृत्युका मंवत् है, यह बात कुछ दूसरे प्राचीन प्रमाणोंसे भी जानी जाती है, जिसका एक नमूना श्रीअमितगति प्राचार्य का यह वाक्य है: समारूढे पूतत्रिदशवसति विक्रमनृपे सहस्र वर्षाणां प्रभवति हि पंचाशदधिके । समाप्त पंचम्यामवति धरिणी मुखनृपती सिते पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनधम् ।। इसमें, 'सुभाषितरत्नसदोह' नामक ग्रन्यको समाप्त करते हुए, स्पष्ट लिखा है कि विक्रमराजाके स्वर्गारोहणके बाद जब १०५०वा वर्ष (संवत् ) बीत रहा था और राजा मुज पृथ्वीका पालन कर रहा था उस समय पौष शुक्ला पंचमीके दिन • यह पवित्र तथा हितकारी शास्त्र समाप्त किया गया है।' इन्ही अमितगति प्राचायंने अपने दूसरे ग्रन्थ 'धर्मपरीक्षा की समाप्तिका समय इस प्रकार दिया है.--- संवत्सराणां विगते सहस्र ससप्तती विक्रमपार्थिवस्य । इदं निषिध्यान्यमतं समाप्तं जेनेन्द्रधर्मामृतयुक्तिशालम् ॥ . । इस पद्यमें, यद्यपि, विक्रनसंवत् १०७० के विगत होने पर ग्रंथकी ममाप्तिका उल्लेख है और उसे स्वर्गारोहण अथवा मृत्युका संवत् ऐसा कुछ नाम नही दिया, फिर भी इस पद्यको पहले पबकी रोशनी में पढ़नेमे इस विषयमें कोई सन्देह नहीं रहता कि अमितगति प्राचार्यने प्रचलित विक्रमसंवत्का ही अपने
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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