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________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे उन्हें दिया । सेठ ने उपाध्याय के कथानुसार, बालक के भोजन की सारी व्यवस्था सुगमता पूर्वक कर दी । कम्पिल के पास, समय पर, भोजन दे वाने का काम, सेठ की शोर से एक दासी को सौंपा गया। संगति का फल मनुष्य को अवश्य भोगना पड़ता है । और, विनाश काल में बुद्धि भी विपरीत हो जाती है। धीरे-धीरे, दासी के प्रेम में कम्पिल फँस गया । अव उनके समय, शक्ति और श्रम का अधिकांश भाग, विद्याध्ययन में नहीं, वरन् दासी के प्रेम में व्यतीत होने लगा । विद्याध्ययन की कमज़ोरी देख कर, उपाध्याय ने, उस के कारण ढूंढ निकालने की, अपने वनते वल चेष्टा की । परन्तु वे इस दिशा में असफल रहे । हाँ, बदले में, काम्पिल, उपाध्याय के अनेक भाँति के उपालम्भ के शिकार अवश्य होते रहे । पाप फूलता है; फलता नहीं । इस नियम से एक दिन सेठ को इस गुप्त रहस्य का पता लग गया। उसने उसी क्षण, दासी को अपने घर में से निकाल अलग कर दिया । फिर भी काम्पिल के गले का हार वह बनी ही रही। हाँ, विद्याध्ययन से उन्होंने अपना नाता अवश्य तोड़ दिया । कम्पिल के दिन, दासी के साथ, अव प्रेमालाप में बीतने लगे । एक दिन वसन्तोत्सव नगर में मनाया जा रहा था । नगर का सारा महिला समाज, वस्त्राभूषणों से सज-धज कर किसी बाग़ में, उस उत्सव के मनाने के हेतु, एकत्रित हुआ था । कम्पिल की प्रेम-प्रात्री भी वहाँ पहुँची। परन्तु दरिद्रता के कारण, इस के पास न तो कोई वस्त्र ही अच्छे थे; और, न 'कोई आभूषण ही । उस समाज के द्वारा, इस की काफ़ी रूप .से खिल्ली उड़ाई गई । यह मन मार कर घर को लौट आई । [३०]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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