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________________ कपिल ऋषि-राज बात लग गई। चालक ने सावत्थी को जाने का हट पकड़ा। एक और, प्रबोध और ज्ञान बालक की चाल हट थी। दूसरी घोर, कोमल हृदय माता की मोह-भरी ममता । दोनों में कुछ समय तक दाँव-पेंच चलते रहे । श्रन्त में जीत का सेहरा बाल-हट ही के सिर बँधा। माता ने विवश हो कर, चालक की जिझासा पूरी करने के लिए, उसे स्यालकोट भेजा । वालक लालायित हो कर, उपाध्याय के पास, विद्याध्ययन के लिए पहुँचे । उपाध्याय को नमन कर अपनी हार्दिक अभिरुचि उन्हों ने, उन के सामने प्रकट की । इस पर उपाध्याय ने कहा, विद्याध्ययन की तुम्हारी इच्छा को मैं पूरी कर सकता हूँ । अन्धादि भी मेरे पास अनेकों, और एक से एक बढ़िया हैं । परन्तु तुम्हारे भरण-पोषण का भार उठाने के लिए मैं एकदम श्रसमर्थ हूँ ।" तत्काल ही कम्पिल बोल उठे, भगवन् ! मैं तो ब्रह्मण कुमार हूँ । भिक्षावृत्ति से, अपने पेट का प्रश्न, मैं सरलता पूर्वक, हल कर लूँगा । इस पहली को सुलझाना, तो हम जैसों के लिए, बाँयें हाथ का खेल है । " 56 उपाध्याय ने फिर भी बालक के मार्ग में रोड़ा अटकाया । वे बोले, " भिक्षा का कार्य जितना ही सीधा तुम्हें दिख पड़ता हैं, उतनी हा वह कठिन भी है। विद्याध्ययन के लिए सादे और सात्विक भोजन की ऐकान्तिक श्रावश्यकता है। बिना ऐसा किये, विद्याध्ययन दुर्लभ और दूभर हैं।" बड़ों के रोड़े भी छोटों के लिए श्राशीर्वाद हो जाते हैं। कम्पिल, उपाध्याय के सामने निश्चल भाव से खड़े ही रहे । अन्त में, उन्हें दया थाई । वे, कोमल हृदय कम्पिल को साथ ले, शालिभद्र नामक एक सेट के पास श्रायें । उन्होंने कम्पिल का पूरा परिचय [२६]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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