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________________ कम्पिल-ऋषि-राज अपने प्रेम-पात्र से अपनी सारी दुर्दशा का हाल उसने कहा। कम्पिल ने इस दशा में कोई परिवर्तन करने के लिए अपनी पूरी-पूरी विवशता बताई । उस ने कहा, सिर-तोड़ परिथम करने पर भी, भिक्षा में उन्हें इतना कम मिलता है. कि उससे पेट का प्रवन्ध भी पूरा नहीं हो पाता। फिर सुन्दर वस्त्र और बहु-मूल्य आभूषणों की :चर्चा तो चलाई ही कहाँ से जा सकती थी। इस पर दासी ने कम्पिल को एक मार्ग वताया, कि यहाँ का राजा, नियमपूर्वक, प्रति दिन, दो माशे सोने का दान देता है । उसे प्राप्त करने का वे प्रयत्न करें । कम्पिल ने नियम-पूर्वक वह भी कितने ही दिनों तक किया। पर सफलता उन्हें एक दिन भी न मिली । कोई न कोई बाधा उन के मार्ग में प्रति दिन आ ही जाती । एक दिन, उसे पाने के लिए, आधी रात ही को, घर से वे निकल पड़े। कोतवाल ने चोर समझ कर उन्हें पकड़ लिया। और, तरह-तरह की तकलीफें उन्हें दी। दूसरे दिन सुबह, राजा के सामने उन्हें पेश किया गया। राजा, मनोविज्ञान का जाननेवाला था । उस ने प्राकृति के द्वारा, कम्पिल को आपदा का मारा एक दरिद्र व्यक्ति पाया । उस ने उन्हें अभय दान दे कर, अपनी सारी राम-कहानी कह सुनाने को कहा । कम्पिल ने अपनी सारी दुख-कथा कह सुनाई । कम्पिल की सचाई पर राजा रीझ गया । राजाज्ञा हुई, कि कम्पिल इच्छित वर माँगे । यह सुन कर कम्पिल का हृदय वाँसों उछल पड़ा । परन्तु वह, इस के साथ ही, लोभ के समुद्र में भी उतराने लगा। फिर दूसरे क्षण, उसी हृदय के भावों ने अपनी करवट बदली। पूर्व जन्म के पुण्यों का संयोग उन में हो पाया। इस वार, वेदिल खोल कर, तृष्णा की निन्दा : [३१]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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