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________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे की तरफ़ से सोलहों आना, वेनवर था। देखना तो दूर की वात रही. मैं ने तो कानों से एक काना शब्द तक सुन न पाया। मुझे तो पद-पद पर केवल यही ध्यान था, कि तेल की एक वृंद तक धरती पर टपकने न पावे । अन्यथा, उस वूद के साथ ही साथ, मैं भी सदा के लिए वहीं सुला दिया जाऊँगा।" वस, इसी आप-चीती वात के द्वारा, सम्राट् ने सोनीजी को अपने मन की दशा का परिचय कराया। वे वोले," सोनीजी! जिस प्रकार मृत्यु को निकट समझ,विलास-पूर्ण विशाल वाज़ार की एक भी वस्तु की ओर तुम्हारा ध्यान नहीं था, ठीक उसी तरह, इस वैभव-पूर्ण वड़े-भारी साम्राज्य का शासक हूँ तो मैं जरूर; परन्तु तुम्हारी ही तरह मृत्यु को मैं भी प्रति पल अपने सिर पर अट्टहास करते हुए देखता रहता हूँ। यही कारण है, कि मैं सम्राट् कहलाते हुए भी, सम्राट् सचमुच में नहीं हूँ। खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, लेते-देते, हर समय, मेरे ध्यान में, एक-मात्र निवृत्ति मार्ग ही वसा हुआ रहता है । मैं प्रवृत्ति-मार्ग का पोषक, केवल इसीलिए ऊपर से दिख पड़ता हूँ, कि मेरी अधीनस्थ प्रजा कहीं अकर्मण्य न वन बैठे। अन्यथा,अन्तःकरण से हूँ मैं उसका घोर विरोधी। परन्तु हाँ,मैं केवल उसी दिन को अपने लिए परम सौभाग्यशालीसमअँगा, जिस दिन, मैं इस संसार के सम्पूर्ण मोहक एवं विशाल वैभव से, सोलह-आना अपना नेह और नाता तोड़ कर, कैवल्य,और केवल कैवल्य-कमला के साथ वरण करूँगा।"अस्तु । ___ सम्राट् की इस सार-गर्भित वाणी को सुन कर, स्वर्णकार का संशय-शील चित्त लज्जा से एक-दम सिट-पिटा गया । उसका सिर, सक्रिय आत्म-धिक्कार से नीचे लटक पड़ा। [४]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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