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________________ भरत चक्रवर्ती - नार, उन के हाथों में लबालब भरा हुया नेल का एक पात्र रखा गया। अपर से यह भी फर्मान हुथा, कि नगर के मध्यमागों से घुमा-फिरा कर, पीछा, गज-प्रासाद में इस को लाया जाय । परन्तु स्मरण गड, कि यदि एक बूंद भी तेल की इस ने पृथ्वी पर पटक दी, तो वहीं एम का सिर, धड़ से अलग कर दिया जाय । राजामा के सुनते ही सुनार के हाथ-पैर फूल गय । परन्तु छुटकार का कोई चारा न था। जिन मानस का स्वर्णकार निकाला जाने वाला था, वे मार्ग विशर एस उस दिन सजाये गये । जिस से उस का गन, उस सजावट की ओर, किसी भी तरह, आप हो जाय। परन्तु यहां नो प्राणों की बाज़ी लगी थी ! फिर तो मार्ग में चलत हुए, अपन अधीन थान्म-रक्षा के जिन-जिन उपायों को या कर सकता था, अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा कर उसने पिया जिस-तिस नरम स मार्ग का परिभ्रमण उस ने पूरा किया। श्रन्न में महाराज के सम्मुगा उसे उपस्थित किया गया। सम्राट न उस से पूछा,-"स्वर्णक्रारजी ! सच-सच बताया, याज बाज़ार में तुम न क्या-क्या देखा ? प्राण-दगड से ना तुम मुहाली गय हो । अब किसी भी बात की चिन्ता तुम्हें न रखनी चाहिए।" इस पर यह सुनार बोला-"महागज! क्या-क्या दग्गा ? इस का उत्तर तो मेर साथीही केवल दमकत हैं। मेरे लिए ना, यह तेल का पात्र, केवल वही लवालव-भरा तेल का पात्र, देखने की एक वस्तु, उस समय थी। मर प्राणों का सौदा उसी पर था। श्राप श्रीर अन्य लोग,सभी कहते हैं, कि रास्ते में नाना भाँति के राग-रंग भी पडे ही अनट और चित्ताकर्षक हो रहे थे। परन्तु मैं तो उन सभी [३]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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