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________________ भरत चक्रवती अपने कृत अपराध और धृष्टता के लिए, सम्राट् से, नत मस्तक हो, क्षमा-याचना उसने की। तदनन्तर, भगवान् श्रादिनाथ के उपदेशों और वचनों में दृढ़ विश्वास ला कर, वह अपने घर को लौट गया । • } एक दिन, सम्राट् श्रपने शीश महल में, अपने रूपयौवन को निरख रहे थे। उसी समय, उनके हाथ की एक अँगुली से हीरे की एक अँगूठी नीचे गिर पड़ी वह अँगुली उन्हें नंगी और भद्दी-सी नज़र आई । तब तो उन्हों ने एक-एक करके अपन सम्पूर्ण श्राभूषण अपने अंग-प्रत्यंगों पर से उतार डाले। फिर वे अपने शरीर को निरखने लगे । श्राभूषण सहित और रहित शरीर की शोभा में उन्हें हिमालय की चढ़ाई और उतराई के समान, श्रन्तर जान पड़ा । उसी समय उन्होंने देह की नियता पर विचार किया। दूसरे दूसरे पुद्गलों के प्रभाव ही से यह सुन्दर जान पड़ती हैं । श्रन्यथा, हाड़-माँस-मज्जा श्रादि गँदले पदार्थों से निर्मित इस देह में दीप्ति था कहाँ से सकती हैं ! भाँति के श्रावरणों का साथ कर, श्रात्मा, अनेकों प्रकार की हीन तथा उच्च योनियों में भटकती फिरती है । इन सात्विक विचारों के हृदय में पैठते ही, सम्राट् को यहाँ खड़े-खड़े ही कैवल्य ज्ञान हो थाया। तब तो, उसी पल, अपने सम्पूर्ण राज्य-भार को, उन्हों ने अपने सिर कन्धों से उतार दिया । और, एक हज़ार ग्रन्य माण्डलिक नरेशों के साथ, वे दीक्षित हो गये । यूँ, श्रात्म-कल्याण के अक्षय राज - मार्ग का अवलम्वन कर, अन्तिम समय में, निर्वाण पथ के निरन्तर पथिक वे बने | " [ 2 ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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