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________________ जैन जगन् के उज्ज्वल तारे महाराज भरत इतने प्रतिभावान् प्रतापशाली, प्रजा-हितेच्छुक, और दीन-प्रति-पालक थे, कि उन्हीं के नाम पर, हमारा यह देश 'भारतवर्ष कहलाने लगा। __कालान्तर में ही भगवान ऋषभदेवजी. विहार करतेकरते, उसी नगरी में पहुँचे। नगर के बाहर बाग में उन्हान वाल किया। धमापदेश देते हुए, एक दिन उन्हों ने फर्माया. कि "वे लोग. जो दिन-गत, ऐशो-याराम, और बारम्भ परिग्रह में बालक रहते हैं, मोक्ष के अधिकारी नहीं बन सकते । इन के विपरीत, व पुरुष, जो दिन-रात रहंत तो ऐस ही वातावरण में हैं; परन्तु प्रत्येक अवस्था में, निवृत्ति-मार्ग ही को अपने जीवन का एक मात्र ध्येय बनाये रहते हैं. मोक्ष उन के लिए दूर नहीं हैं।"प्रसंगवश. प्रागे चल कर उन्हों ने यह भी फर्माया, कि "भरत चक्रवती भी इसी भव में मानधाम के अनुगामी बनेंगे। "पड़ोस में बैठे हुए एक स्वर्णकार के हृदय को यह बात प्रखर गई। वह मन ही मन कहने लगा. "भरतर्जा, इसी भव में मोक्ष में सिधारेंगे। यह बात तो एक दम असम्भव-सी जान पड़ती है । कदाचित् अपने पुत्र के नाते, भगवान् ने यह बात कह डाली है । अन्यथा, छः वएडों के राज-मद में रात-दिन रत रहनेवाले. महा प्रारम्भी और परम परिग्रही की मोश, इसी भव में हो केस सकती है !" उसने अपने बल-भर इस बात का प्रचार और प्रसार नगर में, करने की चेष्टा की। महाराज भरत ने भी इस बात को सुना । तब तो, अति शीव ही, महाराज के सामने उसे पकड़ मँगवाने की, राजाज्ञा हुई। तदनुसार, वह तुरन्त ही पकड़ कर लाया गया। और, महाराज के सामने पेश किया गया। राजाझा के अनु [२]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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