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________________ श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय) । उन १२ गुणों की व्याख्या श्लोक | अशोकवृतः सुरपुष्पवृष्टिः दिव्यध्वनिश्वामरमासनंच । भामंडलंदुंदुभिरातपत्रं सत्मातिहार्याविजिनेश्वराणाम् ॥१॥ (अर्थ) अहंत परमेश्वर वर्त्तमान जिनराज के देहमान से बारह गुणा ऊंचा स्वर्ण रत्नमयी अशोक वृक्ष की छाया सर्वत्र सर्वदा संग रहती है (१) देवता आकाश से जलथल के पुष्पों की वर्षा करते हैं (२) कम से कम एक क्रोड देवता जय २ ध्वनि करते संग रहते हैं ( ३ ) चमरों की जोड़ियों बींझती रहती हैं ( ४ ) स्फटिक रत्न का सिंहासन चंक्रमण समय आकाश में चलता है, विराजते हैं। वहां नीचे अवतरण होता है ( ५ ) भगवान् का तेज मनुष्य देख नहीं सकते इसलिये मस्तक के पीछे कोटि दिवाकर के तेज को विडंव्यमान भामंडल शोभा देता है (६) सर्वदा आकाश में देवगण प्रभु के सन्मुख देव दुंदुभि बाजत्र बजाते रहते हैं ( ७ ) मस्तक पर तीन छत्रातिछत्र सर्वदा रहता है (८) इस प्रकार आठ महा प्रातिहार्य तथा चार मूल अतिशय ( १ ) ज्ञानातिशय ( २ ) वचनातिशय (३) अपाय अपगमातिशय ( ४ ) पूजातिशय एवं १२ गुण युक्त श्रईत परमेश्वर वीतराग होते हैं । ज्ञानातिशय से केवल ज्ञान केवल दर्शन से भूत, भविष्य, वर्त्तमान काल में जो सामान्य विशेषात्मक वस्तु है उसको और ( १ ) उत्पन्न होना (२) नाश होना (३) ध्रुव रहना युक्तसत् । तीनों काल संबंधी सत् वस्तु का जानना उसको ज्ञानातिशय कहते है । दूसरा भगवान् का वचनातिशय है उसके ३५ भेद हैं जैसे (१) संस्कृतादि लक्षण युक्त वचन (२) शब्द में उच्चपना (३) ग्राम वास्तव्य मनुष्य जैसे भगवान्का वचन नहीं (४) मेघ गर्जारव शब्दवत् गंभीर वचन (५) सर्ववाजित्रों के साथ मिलता हुआ वचन ( ६ ) सरलता संयुक्त बचन (७) मालव कोश की आदि ग्राम राग कर युक्त बचन (ये सात अतिशय तो शब्द की अपेक्षा के आश्रय होते हैं बाकी २८ अतिशय अर्थ श्राश्रय के होते हैं) (८) महाश्रर्थ युक्त वचन (६) पूर्वापर विरोध रहित वचन
SR No.010046
Book TitleJain Digvijay Pataka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages89
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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