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________________ देवाधिदेवस्वरूप। ३ (१०)अभिमत सिद्धांत वचन (११) श्रोताजन को संशय नहीं होय ऐसा वचन (१२) जिन के कथन में कोई दूषण नहीं न श्रोता को शंकाहो न भगवान् उसका दूसरी घेर प्रत्युत्तर देवें (१३) हृदय में ग्रहण करने योग्य वचन (१४) परस्परमें वचन का सापेक्षपना (१५)प्रस्तावके उचित वचन (१६) कही वरतु के स्वरूप अनुसारी वचन (१७) सुसंबंध होकर पसरने रूप वचन (१८) स्वश्लाघा और परनिंदा वर्जित वचन (१६) प्रतिपाद्य वस्तु की भूमिकानुसारी बचन (२०) अतिस्निग्ध और मधुर वचन (२१) कथन किये गुण की योग्यता से प्रशंसारूप वचन (२२) पराया मर्म उघाड़ने से रहित वचन (२३) अर्थ का तुच्छपना रहित वचन (२४) धर्म अर्थ कर संयुक्त बचन (२५) कारक काल लिंगादि कर संयुक्त और इन के विपर्यय रहित वचन (२६) वक्ता के मन की प्राति विक्षेपादि दोष रहित बचन (२७) श्रोताओं को उत्पन्न करां हैं वित्र कौतुहलपना ऐसे वचन (२८) अद्भुतपणे के बचन (२६) अतिविलंब रहित वचन (३०) वर्णन करने योग्य वस्तु जातीय स्वरूप आश्रय वचन (३१) वचनान्तर की अोवा से स्थापित है विशेषता ऐसे वचन (३२) साहस कर संयुक्त ववन (३३) वर्णादिकों के विच्छिन्नपणे युक्त वचन (३४) कहे हुये अर्थ की सिद्धि यावत् नहीं होम तहां तक अन्यत्रच्छिन्न प्रमेयपणे रूप पचन (३५)श्कावट रहित बचन ये वचनातिशय उपदेश देते अहंत परमेश्वर के होते हैं। तीसरा अपायअपगमअतिशय तैसे चौथा पूजातिशय इन दोनों से विस्तार रूप ३४ अतिशय होते हैं। तीर्थकर भगवान् के देह का रूप और सुगंध सर्वोत्कृष्ट रोग वर्जित पसीना और मैल कर रहित होता है (१) श्वास निश्वास थल कमल के जैसा सुगंधीवाला होता है (२) रुधिर और मांस गो दुग्ध की तरह उज्वल श्वेत होता है (३) आहार और निहार की विधि चमचलुवाले को दिखाई नहींदेता (४) ये चार अतिशय तो जन्मसे होतेहैं, केवल ज्ञान उत्पन्नहुये अनंतर एक योजन प्रमाण समवसरण की पृथ्वी, लेकिन उस में देव देवांगना मनुष्य मनुष्यणी तिर्यंचों की कोटाकोटि समाय शक्ति है, भीड़ नहीं होती है । (१) प्रभु की वाणी अर्द्ध मागधी लेकिन देव मनुष्य तिर्यच को अपनी २भाषा . में परणमती है, और १ योजन पर्यंत सुनाई देती है (२) प्रभामंडल मस्तक
SR No.010046
Book TitleJain Digvijay Pataka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages89
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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