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________________ r अथ Nepali Lochyut /10) श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय) । देवाधिदेवस्वरूप PARI JIN VIJAI SEN. चूी 110 da ROW. U.. जय सन ६. श्री सर्वज्ञजिनाय नमः ॥ श्री धर्मशीलसद्गुरुभ्यो नमः ॥ सर्व तत्ववेचा पक्षपात विवर्जित पंडितों से नम्रता पूर्वक विनती है कि जो मेरे लिखने में जिन-धर्म से कुछ विरुद्धता हुई हो वह स्थान यथार्थ लिख कर पढ़ें, अनुग्रह होगा । इस ग्रंथ के लिखने का मुख्य प्रयोजन तो यह है कि इस हुंडा अवसयी काल में बहुत से मत लोगों ने स्व कंपोल कल्पित प्रकट कर दिये हैं । अंगरेजों की विद्या पढ़ने से तथा काजी, समाजियों के प्रसंग से जीवों के चित्त में अनेक कुविकल्प की तरंगे उठती हैं इसलिये संसार के जीवों को यथार्थ सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का ज्ञान हो तथा कुदेव कुगुरु और कुधर्मके स्वरूप का बेचापना हो, संसारके सर्वधर्मो से प्रथम धर्म जैन मोचदाताहै सो इस में दर्शाया है। फिर इस ग्रंथके पढ़नेसे तत्वज्ञानकी प्राप्ति होगी । तत्व के बेचा को अवश्य निकट मुक्ति है। यह निर्विवाद पक्ष है । किंबहुना सुज्ञेषु । जैनधर्म में १२ गुण युक्त को भईत परमेश्वर तरणतारण माना है १
SR No.010046
Book TitleJain Digvijay Pataka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages89
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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