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________________ [ त ] तप्पच्चयहेउओसिधम्मन्व, वत्थुनायाविहाणा, होज्जाभावोविवज्जासो ॥ वत्थुस्सलक्खणंसं वबहारोविरोहसिद्धाओ, अभिहाणाद्दिखाओ, बुद्धिसहोअकिरियाय ॥ इतिवाक्यात् नाम्नः प्रधानत्वम् । P गाथा -- आगारो भिप्पा, बुद्धिकिरियाफलंचपाएणं, जहविसइठवगाए, न सहानामेदविदो ॥१॥ आगारोश्चियमई, सद्दवत्थुकिरियामिहागाई, आगारमयं सव्वं, जमयागारातयानत्थि ||२|| इत्यादि । इसलिये नाम और थापना ये दोय निक्षेपा उपकारी है। मोक्ष साधने में संबर निर्जरा करने को तो वंदन करने वाले का जो भाव है सो ग्रहण करना, यदि अरिहंत का भाव निक्षेपा ग्रहण करना कोई कहे तो सर्वथा ग्रहण नहीं होता, अरिहंत का भाव निक्षेपा श्री अरिहंत के अभ्यंतर है यदि जो पर जीव को अरिहंत गत भाव निक्षेप तारे तब तो कोई भी जीव को संसार में रहना पढ़े नहीं अर्थात् सर्व जीव की मुक्ति होजावे, ऐसा तो कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा नहीं, लेकिन अपना भाव अरिहंतावलंबनी - होय, तभी मोक्षं मार्ग की प्राप्ति हो, इसलिये प्रभु की थापना तथा नाम के निमिच से साधक को भाव स्मरण हो सुधरे, इसलिये थापना नाम दोय निक्षेपे ही उपकारी है फिर समवसरण में विराजमान श्री अरिहंत उनका नाम तथा आकार सर्व जीव को उपकारी होता है । द्मस्थ को तो वही प्राय है । अवलंबन दोनों का ही छद्मस्थ कर सकता है। केवलज्ञानी का भाव तो केवलज्ञान विना ग्रहण होता नहीं । निमित्त लंबी रूपी ग्राहक को श्री जिन प्रतिमां पुष्ठ निमित्त है । (देखो नोट ). नोट - न० १० दी जैन स्टूपा चेनटीकीटीस ऑफ मथुरा बाई विनसेन्ट एसमिथ ( अर्थात् ) लन्दन जी में मथुरा का छपा शिला लेख जैन मंदिर का उसमें एक शिला लेख का चित्र (फोटो) सबसे प्राचीन है । पार्श्वनाथ स्वामी के शिष्य प्रभु के विद्यमान समय कई एक जैनाचार्यों ने मिलकर जिन मंदिर की प्रतिष्ठा की थी उन का सर्व वृत्तात उक्त जी में छपा सेठ श्री चामलजी ढड्ढा, C. I.E., बीकानेर के पास पुस्तक हमने स्वय देखा । न० २. बाई बिनसेन्ट एसमिथ, लदन में छपा इस में लिखा है कि अकबर बादशाह वं जिन वर्थी होगया था ।
SR No.010046
Book TitleJain Digvijay Pataka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages89
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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