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________________ ( १७१ ) जीवन्मुक्त परमात्मा होजाते हैं, उस समय उनको अरहंत कहते है । उनके अनंतज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, परम वीतरागता, 'अनंत सुख श्रादि स्वाभाविक गुण प्रगट हो जाते है । इच्छा नहीं रहती है, भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, रोगादि की बाधा नहीं होती है। शरीर कपूर के समान शुद्ध परमाणुओं में बदल जाता है, श्राकाश मे बिना आधार बैठते या विहार करते हैं । उस समय इन्द्रादिक देव आकर एक सभा मंडप रचते हैं; इस मंडपको समवशरण कहते है। इसमें बारह सभायें होती है, जिनमें देव मनुष्य, पशु सव बैठते हैं। भगवान तीर्थकर की दिव्यवाणी द्वारा धर्मामृत की वर्षा होती है। सब अपनी २ भाषामै समझते हैं। जो साधुओं के गुरु गणधर होते हैं वे धारणा में लेकर ग्रन्थ रचना करते हैं । ५. मोक्ष कल्याणक - जब श्रायु एक मास या कम रह जाती है तब विहार व उपदेश बन्द हो जाता है । एक स्थल पर तीर्थङ्कर ध्यान मग्न रहते हैं । श्रायु समाप्त होने पर सर्वसूक्ष्म और स्थूल शरीगें से मुक्त होकर, पुरुषाकार ऊपर को गमन करके लोक के अन्त में विराजमान रहते हुए, अनन्तकाल के लिये जन्म मरण से रहित हो आत्मानन्द का भोग किया करते हैं । इस समय इनको परमात्मा या सिद्ध कहते हैं । इस समय भी इन्द्रादि श्राकर शेष शरीर की दग्ध क्रिया करके
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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