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________________ ( १७२ ) बहुत बड़ा उत्सव मनाते हैं तथा जहां से मुक्ति होती है वहां चिन्ह कर देते हैं। वह सिद्धक्षेत्र प्रसिद्ध होता है। इन २४ में से, २० तीर्थङ्कर 1 श्री सम्मेदशिखर पर्वत (पार्श्वनाथ हिल जि० हज़ारी बाग़ ) से, प्रथम तीर्थंकर श्री श्रादिनाथ कैलाश से, १२ वें श्री वासुपूज्य मन्दारगिरि (ज़ि० * चिन्ह करने का प्रमाण ककुदंर्भुव खचरयोषिदुषितशिखरैरलंकृतः । मेघपटलपरिवीततस्तव लक्षणानि लिखितानि वज्रिणां ॥ १२७॥ वहनीति तीर्थमृषिभिश्च सततमभिगम्यतेऽद्यच । प्रीति वितत हृदयैः परितो भृशमूर्जयंत इति विश्रुतोऽचलः ॥ १२८ ॥ भावार्थ- पृथ्वी का ककुद, विद्याधरों की स्त्रियों से शोभायमान, मेघों से श्राच्छादित वह गिरनार पर्वत जिस पर इंद्र ने चिन्ह अङ्कित किये, भक्तिवान मुनियों के द्वारा तीर्थरूप प्रसिद्ध है। ( श्री नमिस्तुति स्वयंभू स्तोत्र ) + वीसंतु जिणवरिंदा अमरासुर वाददाधुंद किलेसा । | सम्मेदे गिरि सिहरे, णिव्वाण गया णमो तेसि ॥ २ ॥ अट्ठावयस्मि उस हो पाए वासुपुज्ज जिणणाहो । उज्जते रोमि जिणो, पावाए विदो महावीरो ॥ १ ॥ ( प्रा० निर्वाणकाण्ड ) भावार्थ - बीस भगवान, इन्द्रों से बंदनीक, क्लेश रहित सम्मेदशिखर से मोक्ष गये, अष्टापद या कैलाश से ऋषभ देव, चंपापुर य मन्दारगिरि से वासुपूज्य उज्जयंत या गिरनार से नेमि, पाचापुर से महावीर मोक्ष गये, उनको प्रणाम हो ।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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