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________________ ( १७० ) २. जन्म कल्याणक - जन्म होते ही इन्द्र व देव श्राते हैं और बड़े उत्सव से सुमेरु पर्वत पर ले जाकर पांडुक बनमें पांडुक शिला पर विराजमान करके तीर समुद्र के पवित्र जल से स्नान कराते हैं । उसी समय इन्द्र नाम रखता है व पग में चिन्ह देखकर चिन्ह स्थिर करता है । तीर्थंकर महाराज अब से गृहस्थावस्था में रहने तक इन्द्र द्वारा भेजे वस्त्रव भोजन ही काम में लेते हैं। इनको जन्म से ही मति, श्रुत, अवधि तीन ज्ञान होते हैं। इससे तीर्थंकर को बिना किसी गुरुके पास विद्याध्ययन किये सर्व विद्याओं का परोक्षज्ञान होता है । आठ वर्ष की आयु में ही गृहस्थ धर्ममयी श्रावक के व्रतों को चरने लगते है । यदि कुमारवय में वैराग्य न हुआ हो तो विवाह करके सन्तान का लाभ करते व नीतिपूर्ण राज्य प्रवन्ध चलाते हैं। ३. तप कल्याणक - जब वैराग्य होता है, तब भी इन्द्र आदि देव आते हैं और अभिषेक कर नये वस्त्राभूषण पहरा, पालकी पर चढा अपने कंधों पर बनमें ले जाते हैं। वहां एक शिलापर वृक्ष के नीचे बैठकर, प्रभु वस्त्राभरण उतार कर अपने ही हाथों से अपने केशों को उपाड़ ( लोच) डालते है । फिर सिद्ध परमात्मा को नमस्कार कर स्वयं मुनि की क्रियाओं को पालने लगते हैं। आत्मज्ञान पूर्वक तप करते हैं, मात्र शरीर को सुखाते नहीं । आत्मानन्द में इतने मग्न हो जाते हैं कि जब तक केवलज्ञान ( पूर्णज्ञान ) न प्रगटे तब तक मौन रहते हैं । ४. ज्ञान कल्याणक - जब पूर्णशान हो जाता है, तब वह
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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