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________________ जैनदर्शन की भूमिपर सर्वोदयी समाजका निर्माण और विश्वशान्तिकी सम्भावनाका समर्थन किया है । १२. बारहवें - 'जैन दार्शनिक साहित्य' प्रकरणमें दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंके प्राचीन दार्शनिक ग्रन्थोंका शताब्दीवार नामोल्लेख करके सूची प्रस्तुत की गई है । इस तरह इस ग्रन्थ में 'जैनदर्शन' के सभी अङ्गोंपर समूल पर्याप्त प्रकाश to गया है । अन्तमें मैं उन सभी उपकारकोंका आभार मानना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ, जिनके सहयोग से यह ग्रन्थ इस रूपमें प्रकाशमें आ गया है । सुप्रसिद्ध अध्यात्मवेत्ता गुरुवर्य श्री १०५ क्षुल्लक पूज्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णीका सहज स्नेह और आशीर्वाद इस जनको सदा प्राप्त रहा है । २२ भारतीय संस्कृतिके तटस्थ विवेचक डॉ० मङ्गलदेवजी शास्त्री पूर्व प्रिंसिपल गवर्नमेंट संस्कृत कालेजने अपना अमूल्य समय लगाकर 'प्राक्कथन' लिखनेकी कृपा की है । पार्श्वनाथ विद्याश्रमकी लाइब्रेरी में बैठकर ही इस ग्रन्थका लेखन कार्य हुआ है और उसकी बहुमूल्य ग्रंथराशिका इसमें उपयोग हुआ है । भाई पं० फुलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने, जो जैन समाजके खरे विचारक विद्वान् हैं, आड़े समयमें इस ग्रन्थको जिस कसक आत्मीयता और तत्परतासे श्रीगणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित करानेका प्रबन्ध किया है उसे मैं नहीं भुला सकता । मैं इन सबका हार्दिक आभार मानता हूँ। और इस आशासे इस राष्ट्रभाषा हिन्दीमें लिखे गये प्रथम 'जैनदर्शन' ग्रन्थको पाठकोंके सन्मुख रख रहा हूँ कि वे इस प्रयासको सद्भावकी दृष्टिसे देखेंगे और इसकी त्रुटियोंकी सूचना देनेकी कृपा करेंगे, ताकि आगे उनका सुधार किया जा सके । विजयादशमी वि० सं० २०१२ ता० २६।१०।५५ Jain Educationa International } - महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य प्राध्यापक संस्कृत महाविद्यालय हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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