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________________ दो शब्द २१ ७. सातवें-'सप्ततत्त्वनिरूपण' प्रकरणमें मुमुक्षुओंको अवश्य ज्ञातव्य जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका विस्तृत विवेचन है। बौद्धोंके चार आर्यसत्योंकी तुलना, निर्वाण और मोक्षका भेद, नैरात्म्यवादकी मीमांसा; आत्माकी अनादिबद्धता आदि विषयोंकी चर्चा भी प्रसङ्गतः आई है। शेष अजीव आदि तत्त्वोंका विशद विवेचन तुलनात्मक ढंगसे किया है। ८. आठवें-'प्रमाणमीमांसा' प्रकरणमें प्रमाणके स्वरूप, भेद, विषय और फल इन चारों मुद्दों पर खूब विस्तारसे परपक्षकी मीमांसा करके विवेचन किया गया है। प्रमाणाभास, संख्याभास, विषयाभास और फलाभास शीर्षकोंमें सांख्य, वेदान्त, शब्दाद्वैत, क्षणिकवाद आदिकी मीमांसा की गई है। आगम प्रकरणमें वेदके अपौरुषेयत्वका विचार, शब्दकी अर्थवाचकता, अपोहवादकी परीक्षा, प्राकृत-अपभ्रंश शब्दोंकी अर्थवाचकता, आगमवाद तथा हेतुवादका क्षेत्र आदि सभी प्रमुख विषय चर्चित हैं। मुख्य प्रत्यक्षके निरूपणमें सर्वज्ञसिद्धि और सर्वज्ञताके इतिहासका निरूपण है। अनुमानप्रकरणमें जय-पराजयव्यवस्था और पत्रवाक्य आदिका विशद विवेचन है । विपर्ययज्ञानके प्रकरणमें अख्याति, असत्ख्याति आदिकी मीमांसा करके विपरीतख्याति स्थापित की गई है। ९. नवें-'नयविचार' प्रकरणमें नयोंका स्वरूप, द्रव्याथिक-पर्यायाथिक भेद, सातों नयोंका तथा तदाभासोंका विवेचन, निक्षेप-प्रक्रिया और निश्चय-व्यवहारनय आदिका खुलासा किया गया है। १०. दसवें-'स्याद्वाद और सप्तभंगी' प्रकरणमें स्याद्वादको निरुक्ति, आवश्यकता, उपयोगिता और स्वरूप बताकर 'स्याद्वाद'के सम्बन्धमें महापंडित राहुल सांकृत्यायन, सर राधाकृष्णन्, प्रो० बलदेवजी उपाध्याय, डॉ. देवराजजी, श्री हनुमन्तरावजी आदि आधुनिक दर्शन-लेखकोंके मतकी आलोचना करके स्याद्वादके सम्बन्धमें प्राचीन आ० धर्मकीत्ति, प्रज्ञाकर, कर्णकगोमि, शान्तरक्षित, अर्चट आदि बौद्धदार्शनिक, शंकराचार्य, भास्कराचार्य, नीलकण्ठाचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य, व्योमशिवाचार्य आदि वैदिक तथा तत्त्वोपप्लववादी आदिके भ्रान्त मतोंकी विस्तृत समीक्षा की गई है। सप्तभङ्गीका स्वरूप, सकलादेश-विकलादेशकी रेखा तथा इस सम्बन्धमें आ० मलयगिरि आदिके मतोंकी मीमांसा करके स्याद्वादकी जीवनोपयोगिता सिद्ध की है । इसीमें संशयादि दूषणोंका उद्धार करके वस्तुको भावाभावात्मक, नित्यानित्यात्मक, सदसदात्मक, एकानेकात्मक और भेदाभेदात्मक सिद्ध किया है। ११. ग्यारहवें- 'जैनदर्शन और विश्वशान्ति' प्रकरणमें जैनदर्शनकी अनेकान्तदृष्टि और समन्वयकी भावना, व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी स्वीकृति और सर्व समानाधिकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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