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________________ प्रतिभास होता है उसे अवधिदर्शन कहते है। अवमौदर्य-जो जिसका स्वाभाविक आहार है उससे कम आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना अवमौदर्य-तप है। अवर्णवाद-गुणवान बडे पुरुषो मे जो दोष नहीं है उन मिथ्या दोषो को उनमे दिखाना अवर्णवाद कहलाता है। केवली, श्रुत, सघ, धर्म और देवो का अवर्णवाद-यह पांच प्रकार का अवर्णवाद है। अवसन्न-जैसे कीचड मे फसे हुए और मार्गभ्रष्ट पथिक को अवसन्न कहते है वैसे ही ज्ञान और आचरण से भ्रष्टमुनिको अवसन्न कहते हैं। अवसर्पिणी-जिस काल मे जीवो की आयु, वल ओर ऊचाई आदि क्रम-क्रम से घटते जाते है उसे अवसर्पिणी काल कहते है। इसके सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और दुषमा-दुषमा-ऐसे छह भेद है। इन्हे पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पाचवे और छठे काल के नाम से भी जाना जाता है। अवाय-विशेष निर्णय द्वारा वस्तु का जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे अवाय कहते है। जैसे-पखो के उठने गिरने आदि को देखकर 'यह वगुलो की पक्ति है ध्वजा नहीं है'-ऐसा निर्णय करना। अविनेय-जिसमे सच्चे धर्म को सुनने व ग्रहण करने का गुण नहीं है वह अविनेय है। अविपाक-निर्जरा-जिस प्रकार आम, केला आदि को अधिक उष्मा देकर समय से पहले पका लिया जाता है उसी प्रकार कर्म को तप आदि के द्वारा समय से पहले अनुभव मे ले लिया जाता है यह अविपाक जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 29
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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