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________________ अवगाहना-1 जीवो के शरीर की ऊचाई, लम्वाई आदि को अवगाहना कहते है। 2 आत्मप्रदेश में व्याप्त करके रहना अवगाहना है। यह दो प्रकार की हे-जघन्य और उत्कृष्ट । जेसे-कर्मभूमि के मनुष्य की जघन्य अवगाहना 3% हाथ और उत्कृष्ट 525 धनुष। अवग्रह-इन्द्रिय और पदार्थ का सबध होने पर जो पदार्थ का प्रथम ग्रहण या ज्ञान होता है वह अवग्रह कहलाता है। जैसे-आख के द्वारा 'यह सफेद हे' ऐसा ज्ञान होना । अवग्रह दो प्रकार का हे-व्यजनावग्रह और अर्थावग्रह । व्यक्त ग्रहण से पहले-पहले व्यजनावग्रह होता हे और व्यक्त ग्रहण का नाम अर्थावग्रह है। जैसे-माटी का नया घडा जल की दो तीन बूदे सींचने पर गीला नहीं होता और पुन पुन सींचने पर धीरे धीरे गीला हो जाता हे इसी प्रकार श्रोत्र आदि इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण किए गए शब्द आदि पहले व्यक्त नहीं होते किन्तु पुन पुन ग्रहण होने पर व्यक्त हो जाते है। व्यजनावग्रह इन्द्रियो के ग्रहण करने के योग्य क्षेत्र मे पदार्थ के स्थित होने पर ही होता है अत चक्षु ओर मन से नहीं होता, शेष चारो इन्द्रियो से होता है। अर्थावग्रह पाचो इन्द्रिय और मन के द्वारा होता है। अवधिज्ञान-जो द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की सीमा मे रहकर मात्र रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता हे वह अवधिज्ञान है। अवधिज्ञान के तीन भेद हे-देशावधि, सर्वावधि और परमावधि । देशावधि के अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित-ऐसे छह भेद है। देशावधि-ज्ञान भव-प्रत्यय और गुण-प्रत्यय दोनो प्रकार का होता है। सर्वावधि और परमावधि यह दोनो गुण-प्रत्यय है। अवधिदर्शन-अवधिज्ञान से पहले जो रूपी पदार्थो का सामान्य 28 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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