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________________ अग्रट-दृष्टि- अमर दृष्टि का अर्थ है यथार्थ दृष्टि । अनेक प्रकार क भत-मनान्नग में मन्य-अगत्य का निर्णय करक मोह रहित वाय-द्रष्टानामूट दृष्टि नामक गुण है। यह सम्यग्दर्शन का अ है। अमृत-निगम रूप, ग्म, गद्य और मार्श-ये चाग गुण नहीं पाए जाने नमुना जी है। गन्नद्रव्य का छोडकर शेप पाच व्यापी । अमृतगावी कद-जिगद्धि के पमाव से साधु के हाथ में रखा गया या सुखा आहार अमृत के मनान सरस आर गुणकारी हो जाता 7 अथवा जिसक प्रभाव से माधु के वचन अमृत के समान हितकारी नाउन अमृतखावी ऋद्धि कहते है । अमेय्य-यदि आहार के लिए जाते हुए साधु के पर अपवित्र मल मूत्र आदि स निप्न हो जाते हे तो यह अमंध्य नाम का अन्तराय है। अवश-कीर्ति - जिस कम के उदय में किसी जीव के विद्यमान या अविद्यमान अवगुणों की चर्चा लोक में होने लगती हे उसे अयश-कीति - नामकर्म कहते है । अयोग केवली - जिन-तेरहवे गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली भगवान जव अपने जीवन के अंतिम क्षणों मे विशुद्ध ध्यान के द्वारा मन-वचन-काय की ममस्त क्रियाओ का निरोध कर देते हैं तब योग से रहित इस अवस्था में वे अयोग- केवली - जिन कहलाते हैं । यह अंतिम चोदहवा गुणस्थान है। 21 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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