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________________ देना प्रशम भाव है । यह सम्यग्दृष्टि का एक गुण है । प्रशस्त-नि सरणात्मक - तेजस जगत् के जीवो को रोग शोक आदि से पीडित देखकर परम तपस्वी दयालु साधु की इच्छा से हस के समान उज्ज्वल सुंदर आकृति वाला पुरुष उनके दाहिने कधे से निकलकर व्याधि, वेदना, दुर्भिक्ष आदि को शात कर सव जीवो को सुख उत्पन्न करता है, यह प्रशस्त नि सरणात्मक-तेजस या शुभ तेजस कहलाता हे - प्रशस्त-राग- अरहन्त, सिद्ध, साधुओ के प्रति भक्ति, दान, पूजा आदि धर्म कार्यो मे उत्साह ओर गुरुओ का अनुकरण करना प्रशस्त राग कहलाता है 1 प्रश्न- व्याकरणाङ्ग - जिसम युक्ति ओर नयो के द्वारा अनेक प्रश्नो का उत्तर दिया गया है वह प्रश्न - व्याकरणाङ्ग हे | प्रस्रवण - यदि आहार के समय साधु के शरीर से किसी रोगवश अनायास मूत्रादि निकले तो यह प्रस्रवण नाम का अतराय है । प्रहार - यदि आहार के समय साधु के ऊपर या किसी दूसरे के ऊपर कोई प्रहार कर दे तो यह प्रहार नाम का अतराय हे । प्राकाम्य ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु जल के समान पृथिवी पर और पृथिवी के समान जल पर गमन करने में समर्थ होते हे वह प्राकाम्य ऋद्धि कहलाती है। प्राण- जिसके द्वारा प्रत्येक जीव जीता है उसे प्राण कहते है । प्राण दो प्रकार के हे- द्रव्य-प्राण और भाव-प्राण । जीव के चेतना या ज्ञान-दर्शन 170 / जेनदशन पारिभाषिक काश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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