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________________ पुरातन गद्य ४७ व्रत धार परमपदको प्राप्त हुए, भरतने कुछ काल छैखण्डका राज्य किया, अयोध्या राजधानी, नवनिधि चौदह रत्न प्रत्येककी हजार-हजार देव सेवा करे, तीन कोटि गाय, एक कोटि हल, चौरासी लाख हाथी, इतने ही रय, अगरा कोटि घोडे, बत्तीस हजार मुकुटबन्द राजा भर इतने ही देश महासम्पदाके भरे, छियानवे हमार रानी देवांगना समान, इत्यादि चक्रवर्तीके विभधका कहॉतक वर्णन करिये। पोदनापुरमे दूसरी माताका पुत्र वाहुबली सो भरतकी भाज्ञा न मानते भए, कि हम भी ऋपमदेवके पुत्र हैं किसकी आज्ञा मानें, तब भरत बाहुवलीपर चढे, सेना युद्ध न ठहरा, दोऊ भाई परस्पर युद्ध करें यह ठहरा, तीन युद्ध थापे, १ दृष्टियुद्ध, २ जलयुद्ध भर ३ मल्लयुद्ध ।" इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि खड़ी बोलीके गद्यके विकासमे इनकी गद्य शैलीका कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है। मुनि वैराग्यसारने संवत् १७५९ मे 'आठ कर्मनी १०८ प्रकृति नामक गद्य ग्रन्थकी रचना की थी। शैली और भापा दोनोपर अपभ्रशका पूरा प्रभाव है। 'न के स्थानपर 'ण', दूसरेफे स्थानपर 'वीजउ' का प्रयोग तथा द्वित्व वर्ण विशिष्ट भाषा पायी जाती है। १९ वीं शताब्दीके आरम्भमे कवि भूधरदासने 'चरचासमाधान' नामक गद्य ग्रन्थ लिखा है। यद्यपि इसमें विमक्तियाँ ढूंढारी है, पर भाषा खडी बोलीके अत्यासन्न है । गद्यशैली स्वस्थ और भावाभिव्यक्तिमे सक्षम है। इसमे लेखकने धार्मिक काओका निराकरण कर सिद्धान्त निरूपण किया है। इनके गद्यका नमूना निम्न प्रकार है "उपदेश कार्य विपै तो आचार्य मुख्य है। पाठ पठनमें उपाध्याय मुख्य है। संयमके साध विपै साधुकी वडी शक्ति है। मौनावलम्बी पीर विरक्त है, यात साधुपद उत्कृष्ट है। समानपने साधु तीनोंको कहिये । बिशेप विचार विषै साधुपदको ही जानना । याते आचार्य उपाध्यायको साधु कयो । साधूको भाचार्य उपाध्याय न कहिये।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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