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________________ हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन इनकी सख्या अल्प ही है, फिर भी इन्होंने गद्यको सशक्त और भाव व्यक्त करनेमे सक्षम बनाया है । ४६ ध्वनि-योजना, शब्द-योजना, अनुच्छेद-योजना और प्रकरण-योजना का प० दौलतरामने पूरा निर्वाह किया है। भावोकी कटुता अथवा निग्धताकै कारण अनुकूल ध्वनि-वर्णोंका सगठन करनेमे इन्होंने कोर - कसर नही की है । कोमल, ललित और मधुर भावकी अभिव्यक्तिकै लिए तदनुकूल ध्वनियोंका प्रयोग किया है। अनुवादमे यही इनकी मौलिकता है कि ये युद्ध, रति, श्रृङ्गार, प्रेम आदिके वर्णनमें अनुकूल ध्वनियोंका सन्निवेश कर सके है । शब्द इनके सार्थक और भावानुकूल है, एक भी निरर्थक शब्द नही मिलेगा । व्याकरणके नियमोंपर ध्यान रखा गया है, किन्तु ब्रज, ढूँढारी और खडी बोलीका मिश्रितरूप रहने के कारण व्याकरणके नियमोंका पूर्णरूपसे पालन नहीं किया गया है और यही कारण है कि क्रियापद विकृत और तोडे-मरोडे गये है । वाक्योका गठन इस प्रकारसे किया गया है, जिससे गद्यमे अस्वाभाविकता और कृत्रिमता नही आने पायी है। वाक्य यथासम्भव छोटे-छोटे और एक सम्पूर्ण विचारके द्योतक है । एक ही प्रसगसे सम्बद्ध एक विचारधाराको स्पष्ट करनेके लिए अनुच्छेद योजना की जाती है । लेखकने घटनाकी एक शृङ्खलाकी कडियोको परस्पर आबद्ध करनेकी पूरी चेष्टा की है। अनुच्छेद के अन्तमे विचारकी अग्रगतिका आभास भी मिल जाता है । अनुवादक होनेपर भी पं० दौलतरामने प्रकरणोका सम्बन्ध ऐसा सुन्दर आयोजित किया है, जिससे वे मौलिक रचनाकार के समकक्ष पहुँच जाते हैं । अनुवादमें श्लोकोंके भावको एक सूत्रमें पिरोकर कथाके प्रवाहको गतिशीलता दी है। पद्मपुराणके अनुवादमे तो लेखक अत्यन्त सफल है। इनकी गद्यशैलीका नमूना निम्न है "भरत चक्रवर्ती पदक प्राप्त भए, भर भरतके भाई सब ही मुनि
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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