SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन मत दुःखी करो तुम मुझको, दे उत्तर ऐसा कोरा । मानो न मोह को मेरे, तुम अति ही कथा डोरा ॥ वाणीमे ओज, नयनोंमें करुणाकी निर्झरिणी तथा प्राणोमे क्रन्दन भरे हुए पशुओंकी हूकसे व्यथित महावीरके मुख से निकली उक्तियों श्रोता एव पाठको के हृदय तारोंको हिला देनेमें समर्थ है। अपने तर्कसम्मत विचारोंको सत्यका चोगा पहनाकर करुणार्द्र महावीर कह उठते हैंनारी ॥ अधिकारी ॥ सोते-जगते । 2 ये एक ओर हैं इतने, औ अन्य ओर अब तुम्हीं बताओ इनमें से कौन प्रेम आकृतियाँ इनकी सकरुण, दिखती हैं तय ही तो रमणी से भी रमणीय मुझे ये लगते ॥ कविने इसमे नारी - आदर्शको अक्षुण्ण रखनेका पूरा प्रयास किया है । नारी वही तक त्याज्य है, जहाँतक वह असत् और असंयमित जीवन I । जीवन - साधनामे शिथिलता व्यतीत करने के लिए प्रेरित करती है। जब नारी सहयोगी वन जीवनको गतिशील बनानेमे सहायक होती, तब नारी बासनामयी रमणी नही रहती, किन्तु सच्चा साथी बन जाती है उत्पन्न करनेवाली नारी आदर्श नारी नही है राधाका आदर्श रखता हुआ कवि नारीके हुआ कहता है । अतः सीता, राजुल और आदर्श रूपकी प्रतिष्ठा करता फिर नर के लिए कभी भी, नारी न बनी है बाधा । बतलाती है यह हमको, सीता भौ राजुल राधा ॥ दुःख में भी करती सेवा, संकट में साहस भरतो । पति के हित में है जीती, पति के हित में है मरती ॥ 'विराग' का कवि नारीके सम्बन्धमे चिन्तित है । वह आज नारी परतन्त्रताको श्रयस्कर नही मानता है । अतः चिन्ता व्यक्त करता हुआ कहता है-
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy