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________________ ३१ काटने लगा । धीरे-धीरे महलसे उतरे और राज्य- वैभवको ठुकराकर चल पडे उस पथकी ओर जहाँ विश्वकी करुणा सचित थी, जहाँ पहुँचकर मानव भगवान् बनता है । जिसके प्राप्त किये बिना मानवता उपलब्ध नहीं होती । समस्त वस्त्राभूषणोको लक्ष्य प्राप्तिमे बाधक समझ दिगम्बर हो गये । आत्मशोधनके लिए प्रयत्न करने लगे । पश्चात् जननायक बन भगवान् महावीरने सामाजिक जीवनका प्रवाह एक नयी दिशाकी ओर मोड़ा । खण्डकाव्य साधारणतः यह अच्छा खण्डकाव्य है । कविने मातृवात्सल्यका स्वाभाविक निरूपण किया है । यद्यपि इस दृष्टिका यह प्रथम प्रयास है, समीक्षा अतः सम्भाव्य त्रुटियोका रहना स्वाभाविक है, फिरभी सवादोमे कविको सफलता मिली है। कुछ स्थलो पर वो ऐसा प्रतीत होता है कि मातृहृदयको कविने निकालकर ही रख दिया है। माता अपनी ममताका विश्वासकर धड़कते हुए हृदय और अश्रुपूरित नेत्रोसे पुत्र कुमारके पास जाते ही पूछती है - "तुम बहते, इस समय कौनसे रसमें" । माँका हृदय पुत्रपर विश्वास ही नहीं रखता है, परन्तु अज्ञात भविष्यकी आशंकाकर मॉ सिहर उठती है और पुत्रसे पूछ बैठती है इन पशुओं को तो जलना, पर तुम भी व्यर्थ जलोगे । है मरण भाग्यमें जिसके, क्या उसके लिए करोगे ॥ X X X फिर क्यों तुम इनकी चिन्ता, करते इस भाँति विरागी बनकर, मम हृदय हो मेरे डालते x हीरे । चीरे ॥ जब कुमारको इतनेपर भी पिघलता हुआ नही देखती है तो मॉर्क हृदयकी foreaा और पिपासा और वृद्धिंगत हो जाती है अतः उसके मुखसे निकल पड़ता है-
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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