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________________ हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन की ओर आकृष्ट नहीं हुआ तो पिताने भावावेशमे आकर अपने पदका उल्लघन करते हुए अनेक सरस और आदर्शकी बातें कहीं। जब पिता अपने वात्सल्य और स्वत्वसे पुत्रको विवाह करनेके लिए तैयार न कर सके तो वह भिक्षुक बन याचना करने लगे। विराग विजयी हुआ और पिताको निराश हो अपने भवनमे लौट जाना पड़ा । त्रिशलासे सिद्धार्थने सारी बाते कह दी। त्रिशला अनन्त विश्वास समेटे पुत्रके पास आयी। आते ही पुत्रके समक्ष विश्वकी विषमताका दृश्य उपस्थित किया और मातृ-हृदयकी उत्कट अभिलाषा, आशा और अरमानोंको निकालकर रख दिया। माताने अन्तिम अन्न अश्रुपतनका भी प्रयोग किया। रानीको अपने ऑसुओपर असीम गर्व था। पर कुमार महावीर हिमालयकी अडिग चट्टानकी भॉति अचल रहे। माँ! इच्छासागरका नल अथाह है, इसकी धारा रुक नहीं सकती । अनन्त इच्छाओंकी तृप्ति कभी नहीं हुई है, यही महावीरका सीधा-सा उत्तर था। नारीके समान विश्वके ये मूक प्राणी जिनके गलेपर दुधारा चल रही है, मेरे लिए प्रेमभाजन है। मॉको कुमारके उत्तरने मौन कर दिया। पुत्रके तर्क और प्रमाणोके समक्ष मॉको चुप हो जाना पड़ा। एक दिन योगीके समान कुमार महावीर जम-चिन्तनमे ध्यानस्थ थे, उसी समय पिताकी पुकार हुई । पिताने पुत्र के सम्मुख अपनी वृद्धावस्थाकी असमर्थता प्रकट करते हुए राज्यके गुरुतर भारको सम्भालनेकी आज्ञा दी। पिताके इस अनुरोधमे करुणा भी मिश्रित थी; किन्तु महावीरका विराग ज्योंका त्यो रहा। उनकी ऑखोंके समक्ष विश्वके रुदन और क्रन्दन मूर्तिमान होकर प्रस्तुत थे; अतः राज्यका वैभव उन्हें अपनी ओर आकृष्ट न कर सका। करुणासागर कुमारने पशुओंका मूक क्रन्दन सुना, उन्हे दग्ध रुधिरकी धाराओंका दुर्गन्ध मिला, वलिके दृश्य नाचने लगे और राज्यभवन
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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