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________________ खण्डकाव्य २९ यह एक भावात्मक 'खंडकाव्य है । पुरातन महापुरुषोका जीवन प्रतीक वर्त्तमान जीवनको अपने आलोकसे आलोविराग कित कर सत्पथका अनुगामी बनाता है । कवि धन्यकुमार जैन "सुधेश" ने इसी सन्देशकी अभिव्यंजना की है। विराग जीवनकी आदर्श गाथाकी चार पक्तियोपर अपनी प्रतिभा और सात्त्विक कल्पनाका रङ्ग चढाकर ऐसा महत्त्व प्रदान करता है जो समस्त जीवनके चरित्रपर अपनी अमर आभा विकीर्ण करनेमे समर्थ है । इस काव्यमें भगवान् महावीरकी वे अटल विराग भावनाएँ प्रकट की गई है, जिनमे विश्वकी करुणा, सहानुभूति, प्रेम और निस्वार्थ त्यागका अमर सन्देश गूँजता है । वस्तुतः इस काव्यमे काव्यानन्दके साथ आत्मानन्दका भी मिश्रण हुआ है। लोकानुरागकी भावनाको क्रियात्मक मूर्तिमान रूप दिया गया है। धीरोदत्त नायकका सफल चित्रण इस काव्यमे हुआ है। कथानक कथावस्तु सक्षिप्त है, यह पाँच सगों में विभक्त है । प्रातःकाल रविकिरणे कुडलपुरकै प्रासाद-शिखरोंपर अठखेलियाँ करती हुई कुमार महावीरके शयनकक्षपर पहुँची । रश्मियोका मधुर स्पर्श होते ही कुमारकी निद्रा भंग हुई। उनके हृदय ससारके प्रति विराग और प्रिय माता-पिताकी इच्छाओंके प्रति अनुरागका द्वन्द्व होने लगा । यह मानसिक सघर्प चल ही रहा था कि कुमारके पिता आ पहुॅचे। पिताका उद्देश्य कुमार महावीरको विवाहित जीवन व्यतीत करनेके लिए राजी कर लेना था । अतः उन्होने पहले कुमारका मादक यौवन, फिर कोमलागी राजकुमारियोंका आकर्पण, राज्यलक्ष्मी और अपनी तथा कुमारकी माताकी लौकिक सुखकी कामनाएँ उनके समक्ष प्रकट कीं । अटलप्रतिज्ञ महावीरका मन जब इस प्रलोभनो १. प्रकाशकः- भारतवर्षीय दि० जैन संघ, मथुरा ।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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