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________________ हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन आगे चलकर राजुलका विरह वेदनाकै रूपमे परिणत हो जाता है ; जिससे उसमे आदर्श गौरवको छोड स्वार्थकी गन्ध भी नहीं रहती । वह अपने मे साहस बटोरकर स्वार्थ और कमजोरीपर विजय प्राप्त करती हुई कहती है २८ तुमने कब तुझको देखा मुझको बाहिरसे हीं मेरे X X पहिचाना । अन्तरको कब जाना । x नारी ऐसी क्या तन की कोमलता ही लेकर नरके हीन हुई ! सम्मुख क्या दीन हुई । आगे चलकर राजुलका वह कार्य आत्मसाधनाके रूपमे परिवर्तित हो 1 राजुल और नायक । जैन संस्कृतिके मूल शक्तियोको विकसित गया है । जीवनकी विभूति त्याग काव्यकी नायिका नेमिकुमारके चरितमे सम्यक् रूपेण विद्यमान है आदर्श दुःखोंपर विजय प्राप्तकर आत्माकी छुपी हुई कर वरमाला बन जाना का इसमे निर्वाह किया गया है। भौतिक वातावरणको त्याग और आध्यात्मिकता के रूपमे परिवर्तित तथा वासनामय जीवनको विवेक और चरित्रके रूपमे परिवर्तित दिखलाया गया है । भाव और भापाकी दृष्टिसे यह काव्य साधारण प्रतीत होता है । लाक्षणिकता और मूर्तिमत्ताका भाषामे पूर्णतया अभाव है। हॉ, भावोकी खोज अवश्य गहरी है। एकाध स्थानपर अनुप्रासकी छटा रहनेसे भाषामे माधुर्य आ गया है- Camd कल-कल छल-छल सरिताके स्वर ; संकेत शब्द थे वोल रहे । x X X आँखोंमें पहले तो छाये, धीरेसे उरमें लीन हुए । प्रथम रचना होनेके कारण सभी सम्भाव्य हैं । फिर भी इसमे उदात्त भावनाओकी कमी त्रुटियाँ इसमे विद्यमान नहीं है । भाव, भाषा आदि दृष्टियोसे यह अच्छी रचना है ।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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