SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन यहॉपर आदि पुराणको सिंह और मिथ्यातमको गयन्दका रूपक दिया गया है | आदि पुराणके अध्ययन और चिन्तन से मिध्यात्व बुद्धिका दूर हो जाना दिखलाया गया है । मिथ्यात्वका निराकरण सम्यक्तत्व के प्राप्त होनेपर ही होता है। इसी कारण साम्यक्त्वको सिंह और मिथ्यात्वको मतग -- गज कहा है । आदि पुराणका स्वाध्याय सम्यग्दर्शन उत्पन्न करता है, अतएव सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण होनेसे कविने उसे सिंहका रूपक दिया है। १७६ जैन कवियोंने प्रतिपाद्य विषयको प्रस्तुत करनेके लिए उन्हीं उपमानोंका उपयोग नहीं किया है, जो परम्परागत है । काव्यानुभूतिका सर्वांग सुन्दर चित्र वहीं प्रस्फुटित होता है, जहाँ कविकी निजी अनुभूतिका उसके विचारोंसे सामञ्जस्य हो । यह अनुभूति जितनी विस्तृत और गम्भीर होती है, उतना ही प्रतिपाद्य विपय आकर्षक होता है। पुराने उपमानों को सुनते-सुनते हमें अरुचि उत्पन्न हो गई है, अतएव नवीन उपमान ही हमें अधिक प्रभावित करते हैं तथा चर्वितचर्वण किये हुए उपमानों की अपेक्षा प्रभाव भी स्थायी होता है । कवि वनारसीदासने अनेक नवीन उपमानोंके उदाहरण देकर वयं विपयको प्रभावशाली बनाया है । कवि बनारसीदासने उदाहरणाकारका प्रयोग बहुत ही सुन्दर किया है। निम्न दर्शनीय है जैसे तृन काण वाँस आरने इत्यादि और, ईंधन अनेक विधि पावकमै दहिये । आकृति विलोकत कहावै आगि नानारूप, दीस एक दाहक सुभाउ जब गहिये ॥ तैसे नवतत्वमें भयो है बहु भेखी जीन, शुद्ध रूप मिश्रित अशुद्ध रूप कहिये । जाही दिन चेतना शकतिको विचार कीलें, ताही छिन अलख अभेद रूप लहिये ॥ x x x
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy