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________________ हिन्दी - जैन- साहित्य में अलंकार-योजना यहाँ कविने बतलाया है, कि जैसे तृण, काष्ठ, आदिकी अग्नि भिन्न - मित्र होनेपर भी एक ही स्वभावकी अपेक्षा एक रूप है, उसी प्रकार यह जीव भी नाना द्रव्योंके सम्पर्कसे नाना रूप होनेपर भी चेतनाशक्तिकी कक्षा अभेद - एक रूप है । १७७ ज्ञानके उदयसे हमारी दशा ऐसी भई जैसे भानु भासत अवस्था होत प्रातकी ॥ कविने इस पद्याशमें सूर्यके उदाहरण द्वारा ज्ञानकी विशेषता दिखलायी है । कवि कहता है कि ज्ञानका उदय होनेसे हमारी ऐसी अवस्था हो गई है, जैसे सूर्यके उदय होनेपर प्रातःकालकी होती है । जिस प्रकार सूर्यका प्रकाश अन्धकारको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार मोह - अन्धकार दूर हो गया है। कवि वृन्दावन और भूधरदासने भी उदाहरणालकार द्वारा प्रस्तुतका भावोत्कर्ष दिखलाया है । भूधरदासने दृष्टान्ताकारकी योजना निम्न पद्यमे कितने सुन्दर ढगसे की है, यह दर्शनीय है जनम जलधि जलजान जान जन इस मानकर । सरब इन्द्र मिल आन-आन जिस धरहिं शीसपर ॥ पर उपभारी बान, बान उत्थपइ कुनय गन । गन सरोज वन भान, भान मम मोह तिमिर धन ॥ धन चरन देह दुःख दाह हर, हरखत हेरि मयूर मन । मनमथ मतंग हरि पास जिन जिन विसरहु छिन जगत जन ॥ यहाँ भगवान् पार्श्वनाथका ज्ञान उपमेय और सूर्य उपमान है तथा कमलका विकसित होना और अन्धकारका नष्ट होना समान धर्म है । बस, यही बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव है । कवि मनरंगाने उपमेयकी समताका प्रभाव प्रदर्शित करते हुए असम अलकारकी कितनी अनूठी योजना की है। १२
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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